केवल मनुष्य की ही नहीं, अपितु अन्य प्राणि की भागदौड भी अधिकाधिक सुखप्राप्ति के लिए ही होती है । इसके लिए प्रत्येक व्यक्ति पंचज्ञानेंद्रिय, मन एवं बुद्धि द्वारा विषय सुख भोगने का प्रयत्न करता है; परंतु विषय सुख तात्कालिक एवं निम्न श्रेणी का होता है, तो दूसरी ओर आत्मसुख, अर्थात आनंद चिरकालीन एवं सर्वोच्च श्रेणी का होता है । अध्यात्म वह शास्त्र है, जो आत्मसुख प्राप्त करवाता है । खरा सुख (आनंद) धर्मपरायण हुए बिना नहीं मिलता’; इसीलिए धर्मपरायण होना चाहिए । साधना द्वारा आत्मसुख प्राप्त करने से लौकिक व पारलौकिक सुख का आनुषंगिक फल भी प्राप्त होता है ।
अध्यात्म इतना महत्त्वपूर्ण होते हुए भी खेदजनक यह है कि अनेक लोग अध्यात्म शब्द के अर्थ से भी अनभिज्ञ रहते हैं । इसीलिए बहुत ही अल्प लोग अध्यात्म जैसे सर्वोच्च आनंद एवं सर्वज्ञता देनेवाले विषय की ओर उन्मुख होते दिखाई देते हैं । केवल बौद्धिक स्तर पर अध्यात्म को नहीं समझा जा सकता; यह तो प्रत्यक्ष कृत्य द्वारा अनुभूत करनेका विषय है ।
१. सुख – दुःख की परिभाषा और उनका महत्त्व क्या है ?
जिसे जो प्रिय लगता है, उसे वह सुख कहता है और यदि वही अप्रिय हो जाए, तो उसे दुःख कहता है ।
छोटा बच्चा भी अपनी मां का स्तनपान करने के लिए अपना मुख पास ले जाता है । वही बच्चा आग को देखकर दूर भागता है और पैर में कांटा चुभने पर पैर झट से हटा लेता है । इससे यह ध्यान में आता है कि प्रत्येक की सर्व क्रियाएं सुख प्राप्त करने के लिए एवं दुःख अथवा अप्रिय बातों से छुटकारा पाने की दिशा में होती हैं ।
सुख एवं दुःख हमारे महान शिक्षक हैं । सुख की अपेक्षा कष्ट एवं ऐश्वर्य की अपेक्षा दरिद्रता से ही हम अधिक सीखते हैं । प्रकृति ने मानव की प्रगति के लिए सुख-दुःख दिए हैं । सुख अर्थात पुरस्कार और दुःख अर्थात दंड ।
सुख पोषक; परंतु दुःख बोधक है ! ऐसा क्यों ?
सुख भले ही पोषक हो, तब भी वह मनुष्य को मोहमाया में फंसा सकता है । सुख सिखाता है, जीवन सागर में तैरना । जीवनरूपी महासागर में डुबकी लगाकर महान-तत्त्व रूप मोती निकालकर लाने की कला ‘दुःख’ सिखाता है एवं साहस देता है । दरिद्रता में जीवन काट रहे मनुष्य की चाकरी (नौकरी) अचानक छूट जाए, तो उसे बचे-खुचे धन में अपना जीवनयापन करना पडता है । वह जीवन में कटौती करने लगता है । इससे ईश्वर का गुण ‘कटौती’, एक महान तत्त्व मनुष्य की वृत्ति में संस्कारित होने लगता है । कठिन परिस्थिति में मार्ग निकालते हुए, उसका मन दृढ होने लगता है । जीवन को समझने की बुद्धि एवं जीवन जीने का साहस दुःख से मिलता है ।
सुख, दुःख एवं आनंद में अंतर क्या है एवं सुख-दुःख की तुलना में आनंद का क्या स्थान है ?
सुख एवं आनंद की व्याख्या : सुख अर्थात पंचज्ञानेंद्रिय, मन अथवा बुद्धि द्वारा जीव को होनेवाली अनुकूल संवेदना । आनंद अर्थात पंचज्ञानेंद्रिय, मन व बुद्धि के परे संवेदना की अनुभूति ।
जन्म से अंधे व्यक्ति को हम कितना भी समझाने का प्रयास करें कि यह विश्व दृश्य स्वरूप में दिखाई देता है, तब भी उसे विश्वास दिलाना कठिन है । किसी बालक को यौन के बारे में कितना ही क्यों न समझाएं, उसके लिए यह समझना कठिन है । उसी प्रकार, आनंद का अर्थ किसी को समझाना कठिन होता है । उसे शब्दों में नहीं बताया जा सकता है । उसकी अनुभूति ही लेनी पडती है । जहां सुख की अपेक्षा समाप्त होती है, वहीं से आनंद की यात्रा आरंभ होती है ।