
संत तुकाराम महाराज के सदेह वैकुंठगमन का दिन तुकाराम बीज कहलाता है । साधकों की दृष्टि से यह संतश्रेष्ठ तुकाराम महाराजजी के चरणों में कृतज्ञता व्यक्त करने का दिन है । इस निमित्त संतश्रेष्ठ, भक्तशिरोमणी, कृपा के सागर तथा अपने अभंगों से संपूर्ण ब्रह्मांड का उद्धार करने का सामर्थ्य रखनेवाले संत तुकाराम महाराज की महानता संक्षेप में दे रहे हैं ।
सदेह वैकुंठ गमन : संत तुकाराम महाराज मानव के रूप में एक अवतार होने का उदाहरण
प्रभु श्रीराम ने शरयू नदी में देह समर्पित किया, तो भगवान श्रीकृष्ण बाण लगने के पश्चात अनंत में विलीन हुए । सदेह वातावरण में अर्थात पंचमहाभूतों में विलीन होनेवाले ये दोनों, अवतार थे; परंतु मानव होकर भी सदेह विलीन होनेवाले (वैकुंठगमन करनेवाले) संत तुकाराम महाराजजी एकमात्र थे । इसलिए यह कहना पडेगा कि वे मानव न होकर, मानव रूप में एक अवतार ही थे ।
संत तुकाराम महाराज की निरंतर भावावस्था के कारण उनका देह में
होते हुए भी न होने के समान होना तथा इसीलिए उनमें पूर्णरूपी देवत्व होना
संत तुकाराम महाराजजी निरंतर भावावस्था में रहते थे । उनकी देहबुद्धि अत्यंत अल्प, अर्थात जीवन के नित्यकर्म करनेयोग्य ही शेष थी । शेष सर्व काल वे हरिनाम में तल्लीन रहते थे और देह में होकर भी न होने के समान थे । पूर्णरूपी देवत्व ऐसा ही होता है ।
संत तुकाराम महाराजजी की साक्षीभूत अवस्था उनके द्वारा वर्णन किए गए उनके ही अभंगों से ही वे कितनी साक्षीभूत अवस्था में थे, यह पता चलता है । ईश्वर ही ईश्वर को पहचान सकते हैं । इससे ध्यान में आता है कि संत कितने दूरदर्शी होते हैं और वे किसी भूमिका में प्रवेश कर उस स्तर पर लिखते हैं और उस अवस्था के अमूल्य चैतन्य द्वारा ब्रह्मांड का उद्धार करते हैं ।
देहू में वैकुंठगमन किए हुए स्थान पर स्थित
नांदुरकी वृक्ष तुकाराम बीज के दिन दोपहर ठीक १२:०२ पर हिलना
देहू में संत तुकाराम महाराज ने जहां से वैकुंठ गमन किया था, उस स्थान पर आज भी एक वृक्ष है । उसका नाम नांदुरकी है । आज भी तुकाराम बीज के दिन वह वृक्ष दोपहर को ठीक १२:०२ पर संत तुकाराम ने वैकुंठगमन के समय प्रत्यक्ष हिलता है और हजारों भक्तगण इसकी अनुभूति लेते हैं ।
प्रत्येक बात का उत्तर अध्यात्म में होना; क्योंकि अध्यात्म ही एकमात्र और परिपूर्ण शास्त्र
प्रत्येक बात का उत्तर अध्यात्म में है; क्योंकि अध्यात्म ही एकमात्र परिपूर्ण शास्त्र है । ईश्वर की भक्ति के कारण संत विश्वमन और विश्वबुद्धि से अर्थात ईश्वरी मन और बुद्धि से एकरूप हो चुके होते हैं, इसलिए कहा जाता है कि संतों को सर्व ज्ञात होता है; क्योंकि ईश्वर की बुद्धि को सर्व ज्ञात होता है । नांदुरकी वृक्ष के संबंध में मिला हुआ ज्ञान भी इसका अपवाद नहीं है । भक्त प्रार्थना करते हैं, उस समय ईश्वर उन्हें अपने विचार सुझाते हैं । ये विचार भक्त द्वारा लिखे जाते हैं, इसे ही ईश्वरीय ज्ञान कहते हैं । गुरुकृपा से मिले ईश्वरीय ज्ञान से तुकाराम बीज के दिन नांदुरकी वृक्ष हिलने के संबंध में मिले हुए विचार यहां प्रस्तुत हैं ।
देहू में वैकुंठगमन किए हुए स्थान पर स्थित वृक्ष तुकाराम
बीज के दिन दोपहर ठीक १२:०२ पर हिलने के पीछे का अध्यात्मशास्त्र
अ. वैकुंठगमन किए हुए स्थान पर श्रीविष्णुतत्त्व से
संबंधित क्रियाशक्ति वहां की भूमि में भंवर के स्वरूप में कार्यरत होना
देहू में वैकुंठगमन किए हुए स्थान पर विष्णुतत्त्व से संबंधित क्रियाशक्ति वहां की भूमि में भंवर के रूप में कार्यरत है । इसलिए उस स्थान का अनन्यसाधारण महत्त्व है । वैसे ही स्थल, काल और वृक्ष हिलना इनके एकत्रित संयोग से भूगर्भ की शक्ति कार्यरत होती है और वैकुंठ की विष्णुऊर्जा स्थल को १२.०२ पर स्पर्श करती है । उसी समय विष्णुतत्त्वात्मक प्रकट ऊर्जा का भूमि पर अवतरण होता है । इस ऊर्जा के स्पर्श से वृक्ष के पत्ते हिलते हुए दिखाई देते हैं ।
आ. भक्तों और लाखों वारकरियों की श्रद्धा के कारण श्रीविष्णु की क्रियाशक्ति
नामक कालऊर्जा तुकाराम बीज के दिन विशेष साक्ष्य देने के लिए वैकुंठलोक से दोपहर
ठीक १२.०२ पर भूमि की दिशा में आना तथा यह एक प्रकार से क्रियाऊर्जा का भूमि पर अवतरण ही होना
नांदुरकी वृक्ष हिलने के पीछे स्थलमहात्म्य के साथ ही कालमहात्म्य भी है । यहां स्थल और काल इन दोनों प्रकार की ऊर्जा का संगम हुआ है । तुकाराम महाराज ने दोपहर ठीक १२.०२ पर वैकुंठगमन किया था । इस दिन स्थल से संबंधित जो ऊर्जा वैकुंठलोक से नीचे आई थी, वह वहीं अर्थात नांदुरकी वृक्ष जहां है, वहां घनीभूत हो गई; क्योंकि इस स्थान पर ही तुकाराम महाराज और समाज के सर्व लोग एकत्रित हुए थे । श्रीविष्णु का वैकुंठलोक क्रियाशक्ति से संबंधित है । आज भी इस स्थान पर भूगर्भ में यह ऊर्जा सूक्ष्म भंवर के रूप कें वास कर रही है । अभी भी भक्तों और लाखों वारकरियों की श्रद्धा के कारण वैकुंठलोक से यह कालऊर्जा तुकाराम बीज के दिन विशेष साक्ष्य देने के लिए वैकुंठलोक से दोपहर ठीक १२.०२ पर भूमि की दिशा में आती है । एक प्रकार से श्रीविष्णु की क्रियाऊर्जा का भूमि पर अवतरण ही होता है ।
इ. जिस समय यह काल के स्तर की ऊर्जा भूमि में स्थित
स्थलसंबंधी ऊर्जा को दोपहर ठीक १२.०२ बजे स्पर्श करती है, उस समय नांदुरकी
वृक्ष ऊपर से नीचे तक हिलता है । उसका हिलना हमें पत्तों के हिलने के रूप में दिखाई देता है ।
ई. नांदुरकी वृक्ष के हिलने की प्रत्यक्ष प्रतीति ले सकना
इसे हमने प्रत्यक्ष अनुभव किया है । भारत की संतपरंपरा और परंपरा के रूप में वर्षों तक भक्तकल्याण के लिए ईश्वर द्वारा दिया जा रहा यह अवतरण साक्ष्य कितना महान है, इसकी हम इस बार प्रत्यक्ष प्रतीति ले सके । हमने इसका चित्रीकरण भी किया है ।
उ. नांदुरकी वृक्ष हिलते समय आसपास का वातावरण स्तब्ध होना
इस समय वातावरण भी स्तब्ध हो जाता है । जैसे अन्य पशु-पक्षी, वृक्ष भी यह क्षण देखने के लिए आतुर होते हैं । वे अपनी गतिविधियां रोककर स्तब्ध हो जाते हैं, ऐसा प्रतीत होता है ।
ऊ. वैकुंठलोक से आनेवाली काल ऊर्जा भूमि पर अवतरित होने के कारण नांदुरकी वृक्ष हिलना
तुकाराम महाराज वैकुंठ में गए हैं । उस समय से भूमि में घनीभूत हुई स्थलविषयक क्रियाशक्ति के भंवर को तुकाराम बीज के दिन वैकुंठलोक से आनेवाली कालऊर्जा जिस समय स्पर्श करती है, उस समय इसकी साक्ष्य स्वरूप यह वृक्ष हिलता है ।
संत तुकाराम महराज जी की जय
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