घटस्थापनाके दिन स्थापित देवताओंके विसर्जनकी विविध कृतीया
घटस्थापनाके दिन वेदीपर बोए अनाजसे नवमीतक अंकुर निकलते हैं । देवीमां नवरात्रिके नौ दिनोंमें जगतमें तमोगुणका प्रभाव घटाती हैं और सत्त्वगुण बढाती हैं ।
१. विसर्जनकी पद्धती
ऐसी जगदोद्धारिणी मां शक्तिके प्रति कृतज्ञता व्यक्त कर आवाहित शक्तितत्त्वको उनके मूल स्थानपर विराजमान होनेकी विनती करनेका दिन है महानवमी । इस दिन वेदीपर स्थापित घट एवं नवार्णव यंत्रपर स्थापित देवी का विशेष पूजन कर उनका विसर्जन करते हैं ।
अ. श्री देवीमांको गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, कर्पूरके उपचार अर्पित किए जाते हैं ।
आ. तदुपरांत पूजक प्रार्थना करता है, `मैं यह कार्य करनेमें असमर्थ हूं । हे श्री महेश्वरी आपकी कृपासे ही यह संपन्न हुआ है ।’
इ. तदुपरांत `पुनरागमनाय च’ ऐसा बोलते हुए विसर्जन किया जाता है ।
ई. कलशको थोड़ा हिलाया जाता है । फिर कलशका पवित्र जल पूजकपर छिडका जाता है ।
उ. श्री देवीमांको पुन: पधारनेका आवाहन कर, स्वस्थान विदा होनेके लिए प्रार्थना की जाती है ।
ऊ. उसके उपरांत वेदीपर उगे अंकुरांको बहते पानीमें विसर्जित अर्थात प्रवाहित किया जाता है ।
घटस्थापनाके दिन वेदीपर बोए अनाजसे नवमीतक अंकुर निकलते हैं । इन अंकुरोंको शाकंभरीदेवीका रूप मानते हैं । कुछ स्थानोंपर नवमीके दिन विसर्जनसे पूर्व ये अंकुर देवीको अर्पित करते हैं । कुलपरंपरानुसार कुछ लोगोंके घरोंमें नवरात्रिकी समाप्ति विजयादशमी अर्थात दशहरेको करते हैं । कुछ लोग अनाज के अंकुर शमीपूजनके समय शमी वृक्षको अर्पित करते हैं और लौटते समय इनमेंसे कुछ अंकुर केशमें धारण करते हैं ।
विसर्जनकी पद्धती दृश्यपट (Navratri Video)
२. वेदीपर उगे अंकुर देवीको अर्पित करनेका शास्त्रीय कारण
घटस्थापनाके दिन वेदीपर बोए अनाजके ये अंकुर नवमीके दिन विसर्जनसे पूर्व देवीको अर्पित करना, यह अनाजमें विद्यमान देवीकी क्रियात्मक तरंगोंको देवीकी स्थूल मूर्तिमें विलीन करनेका द्योतक है । नौ दिनोंमें पूजनविधिके कारण अनाजमें देवीतत्त्वकी तरंगें कार्यरत होती हैं । देवीतत्त्वसे प्रभारित अंकुर देवीको अर्पित करनेसे ये तरंगें देवीकी मूर्तिमें समाविष्ट होती हैं । तदुपरांत देवीकी मूर्तिका उत्तरपूजन अर्थात विसर्जनपूजन करनेसे ये तरंगें वातावरणमें प्रक्षेपित होती हैं । मूर्ति मिट्टीकी बनी हो, तो उसका वेदीपर उगे अंकुरोंसहित जलमें विसर्जन करते हैं । अन्यथा केवल अंकुरोंका जलमें विसर्जन करते हैं ।
जलमें विसर्जन करनेसे उनमें शेष बचा देवीतत्त्व जलके प्रवाहके साथ दूरतक प्रवाहित होता है । साथही इस जलके बाष्पीकरणके कारण देवीतत्त्व वायुमंडलमें संचारित होता है । इस प्रकार समष्टि स्तरपर सभीको देवीतत्त्वकी तरंगोंका लाभ प्राप्त होता है ।
कलशका पवित्र जल पूजकपर छिडकनेके उपरांत कलशके शेष जलका उपयोग वास्तुशुद्धिके लिए किया जाता है अथवा विसर्जित किया जाता है ।
३. कलशमें भरे जलका विविध पद्धतिसे उपयोग करनेका शास्त्रीय कारण
नवरात्रिमें स्थापित कलशमें भरा जल शक्तितत्त्वसे प्रभारित होनेके कारण इसे वास्तुमें छिडकनेसे वास्तुमें विद्यमान रज-तम कणोंका विघटन होता है । इससे वास्तुशुद्धि होती है । उस जलके चैतन्यद्वारा संबंधित तथा वास्तुमें रहनेवाले व्यक्तियोंके देहकी भी शुद्धि होती है ।
देवीपूजनके कारण इस जलमें आकृष्ट तेजतत्त्वकी शक्तिको सामान्य जन सह नहीं पाते । इसलिए इस जलको पीनेसे अस्वस्थता अनुभव होना, मुंहमें छाले आना, पेटमें दाह होना, सिरमें वेदना होना जैसे कष्ट हो सकते हैं; परंतु जिनका आध्यात्मिक स्तर ५० प्रतिशतसे अधिक है, वे यह जल प्राशन कर उसके तेजतत्त्वका उपयोग देहशुद्धिके लिए कर सकते हैं ।
बंगाल जैसे प्रदेशोंमें जिस स्थानसे कलशमें भरने के लिए जल लाया जाता है, उसी जलस्रोतमें जलको दशहरेके दिन विसर्जित करते हैं और देवताओंकी मूर्तियोंको भी उसी जलस्रोतमें विसर्जित करते हैं ।
४. देवताओंका `उद्वार्जन’ अर्थात देवताओंकी मूर्तियां स्वच्छ करना
सामान्यत: नित्य पूजनमें रखी देवताओंकी धातूकी मूर्तियोंका नवरात्रिकी स्थापनासे पूर्व एवं विसर्जनके उपरांत `उद्वार्जन’ करनेकी रीति है । `उद्वार्जन’ करना अर्थात देवताओंकी मूर्तियोंको स्वच्छ कर उन्हें चमकाना और उपरांत मूर्तियोंको अभिषेक एवं पूजन करना । विसर्जनके दिन संभव न हो, तो दूसरे दिन `उद्वार्जन’ अवश्य करना चाहिए । `उद्वार्जन’ करनेके लिए नींबू, भस्म, उदबत्तीकी विभूति इत्यादिका उपयोग करना चाहिए । रंगोली अथवा पात्र स्वच्छ करनेके लिए उपयोगमें लाये जानेवाले चूर्णका उपयोग कभी न करें ।