१. गुरुकृपा किस प्रकार कार्य करती है ? यह विविध घटकोंपर निर्भर करता है।
जब कोई कार्य हो रहा हो, तब वह कितनी मात्रा में सफल होगा, यह उसमें कार्यरत विविध घटकोंपर निर्भर करता है । स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म अधिक सामर्थ्यवान होता है, जैसे अणुबमसे अधिक शक्तिशाली परमाणुबम होता है । इस सिद्धान्तका यहांपर उपयोग किया गया है । यह सूत्र शत्रुनाशके इस उदाहरणसे स्पष्ट होगा । आगे दिए विविध प्रकारसे शत्रुका नाश किया जा सकता है । ये चरण महत्त्वानुसार आरोही (बढते) क्रम में दिए गए हैं ।
१ अ. पंचभौतिक (स्थूल)
शत्रु कहां है, यह पंचज्ञानेन्द्रियोंद्वारा ज्ञात होनेपर, उदा. उसके दिखाई देनेपर अथवा उसकी गतिविधि की जानकारी होनेपर उसे बन्दूक की गोलीसे मारा जा सकता है । यदि वह थोडी भी गतिविधि न कर किसी आवरणके पीछे छुप जाए और दृष्टिगोचर न हो, तब ऐसी स्थिति में बन्दूकधारी उसे नहीं मार पाएगा । यहां मारनेके लिए केवल स्थूल शस्त्रका प्रयोग किया गया है । विभिन्न कार्योंके लिए विभिन्न स्थूल वस्तुओंका प्रयोग किया जाता है, उदा. रोगके कीटाणुओंको मारने हेतु औषधि इत्यादि । केवल स्थूलद्वारा काम न बने, तब अगले चरण में बताई गई सूक्ष्म की जोड देना अति आवश्यक है ।
१ आ. पंचभौतिक (स्थूल) एवं मन्त्र (सूक्ष्म) एक साथ
पूर्वकाल में मन्त्रोच्चारण करते हुए धनुषपर लगाया बाण छोडते थे । मन्त्रद्वारा बाणपर शत्रुका नाम अंकित हो जाता था एवं वह किसी भी आवरणके पीछे क्यों न हो, त्रिलोक में कहीं भी छुपा हो, तब भी बाण उसका वध करने में सक्षम होता था । यहां स्थूल अस्त्रको (बाणको) सूक्ष्म की (मन्त्र की) सन्धि दी गई है । आयुर्वेद में मन्त्रका उच्चारण करते हुए औषधि बनानेका यही उद्देश्य है । इसी प्रकार भूत उतारने में मन्त्रके साथ काली उडद, बिब्बा, लाल मिर्च, नींबू, सुई आदि वस्तुओंका प्रयोग करते हैं । कभी-कभी स्थूल एवं सूक्ष्म एकत्रित होनेपर भी कार्य सम्पन्न नहीं होता; ऐसे में अगले चरणानुसार सूक्ष्मतर, अर्थात अधिक शक्तिशाली मन्त्रका प्रयोग करना पडता है ।
१ इ. मन्त्र (सूक्ष्मतर)
अगले चरण में बन्दूक, धनुष-बाण इत्यादि स्थूल अस्त्र की सहायताके बिना ही, केवल विशिष्ट मन्त्रद्वारा शत्रुका नाश किया जा सकता है । विभिन्न कार्योंको साध्य करने हेतु, उदा. विवाह, धनप्राप्ति इत्यादि हेतु विभिन्न मन्त्र हैं । कभी-कभी मन्त्रद्वारा भी कार्य नहीं होता । ऐसी दशा में अगले चरणका प्रयोग करना पडता है ।
१ ई. व्यक्त संकल्प (सूक्ष्मतम)
‘अमुक कार्य सम्पन्न हो’ केवल यह विचार किसी (आध्यात्मिक दृष्टिसे) उन्नत पुरुषके मन में आते ही, वह कार्य सम्पन्न हो जाता है । इसके अतिरिक्त उन्हें और कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं होती । ७० प्रतिशतसे अधिक आध्यात्मिक स्तरके उन्नत पुरुषद्वारा ही यह सम्भव है । ‘शिष्य की आध्यात्मिक उन्नति हो’, ऐसा संकल्प गुरुके मन में आनेपर ही शिष्य की खरी प्रगति होती है । इसे गुरुकृपा कहते हैं; अन्यथा शिष्य की उन्नति नहीं होती । उसका आदिभ्रम नष्ट नहीं होता ।
संकल्प कैसे कार्य करता है ?
अव्यक्त संकल्प (सूक्ष्मातिसूक्ष्म) क्या होता है ?
इसमें ‘शिष्य की आध्यात्मिक उन्नति हो जाए’, ऐसा संकल्प गुरुके मन में न आते हुए भी, शिष्य की अपनेआप उन्नति होती है । इसका कारण यह है कि उसके पीछे गुरुका अव्यक्त संकल्प होता है । ८० प्रतिशतसे अधिक आध्यात्मिक स्तरके उन्नत पुरुषोंद्वारा ही यह सम्भव है ।
१ उ. अस्तित्व (अति सूक्ष्मातिसूक्ष्म)
इस अन्तिम चरण में मन में संकल्प करना भी आवश्यक नहीं है । गुरुके केवल अस्तित्वसे, सान्निध्यद्वारा अथवा सत्संग द्वारा शिष्य की साधना एवं उन्नति अपनेआप होती है । ९० प्रतिशत स्तरके गुरुका कार्य इस पद्धति का होता है । यह ‘मेरे कारण हुआ है; परंतु मैंने नहीं किया’, इसका जिसे ज्ञान हो गया, वह जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो गया । – ज्ञानेश्वरी, अध्याय ४, पंक्ति ८१ का अर्थ यहां पर ‘मेरे कारण हुआ’ अर्थात, मेरे अस्तित्व से हुआ; इसमें ‘मैं’पन परमेश्वर का है । ‘मैंने नहीं किया है’, अर्थात मैं इसका कर्ता नहीं हूं । सूर्य इस बात का एक सुंदर उदाहरण है । सूर्य उगने पर सभी जाग जाते हैं, फूल खिलते हैं इत्यादि । यह केवल सूर्य के अस्तित्व से होता है । सूर्य न ही किसी को उठने के लिए कहता है और न ही फूलों से खिलने के लिए कहता है ।
२. गुरु के संकल्प से ही शिष्य की प्रगति होती है । यह संकल्प कैसे कार्य करता है ?
यदि हम ऐसा मानें कि सामान्य व्यक्ति का स्तर २० प्रतिशत और मोक्ष अर्थात १०० प्रतिशत, तो संकल्प द्वारा कार्य सिद्ध होने हेतु कम से कम ७० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर आवश्यक है । ऐसे मानकर संकल्प कैसे कार्य करता है, यह समझकर लेते हैं ।
मान लीजिए मन की शक्ति १०० इकाई (युनिट) है । प्रत्येक व्यक्ति के मन में दिनभर विचार आते हैं । कुछ कार्यालयसंबंधी, कुछ घरसंबंधी, कुछ संसार आदि के । प्रत्येक विचार के कारण एवं विचार की पूर्ति हेतु उदा. मुझे कार्यालय जाना है, कार्य करना है, किसी से मिलना है । कुछ मात्रा में शक्ति व्यय होती रहती है । दिनभर में ऐसे १०० विचार आएं, तो उसकी उस दिन की अधिकांश शक्ति समाप्त हो जाएगी; परंतु उसके मन में विचार ही न आएं, मन निर्विचार रहे और उसके मन में एक ही विचार आए, ‘अमुक हो जाए’, तो उस विचार के पीछे पूरी १०० इकाई शक्ति होती है, इसलिए वह विचार (संकल्प) सिद्ध हो जाता है । वह विचार सत का हो, तो अपनी साधना भी उसमें व्यय नहीं होती और ईश्वर ही उस कार्य को पूर्ण करते हैं । इसका कारण यह है कि सत का कार्य ईश्वर का कार्य होता है । अर्थात इसे साध्य करने के लिए नाम, सत्संग, सत्सेवा, सत के लिए त्याग, इस मार्ग द्वारा साधना कर साधक को ऐसी स्थिति प्राप्त कर लेनी चाहिए, जिसमें असत के विचार ही मन में न आएं ।
३. गुरु की कृपा शीघ्र हो, इस हेतु शिष्य को क्या करना चाहिए ?
आज्ञाकारिता, शिष्य के समस्त गुणों में यह सर्वश्रेष्ठ है । आज्ञाकारिता बढानी चाहिए । आज्ञा की पृष्ठभूमि से शिष्य कदाचित अनभिज्ञ हो; परंतु उसे इस बात का पूर्ण विश्वास होता है कि ‘गुरु की विचारधारा कल्याणकारी है’; अतः सत्शिष्य सद्गुरु की आज्ञा का पालन निःसन्देह करता है । वे कहें ‘नामजप कर’, तो वह उसी अनुसार करता है । ‘उससे क्या लाभ होगा ?’, इसका विचार वह नहीं करता ।
जब गुरु ने कहा ‘निरंतर नामजप करो’, तब अंबू ने सात दिन लगातार नामजप किया । इसके परिणामस्वरूप उसे साक्षात्कार हुआ और वे अंबुराव महाराज बने ।
गुरु की बात पर विश्वास न हो, तो प्रथम उनके कहे अनुसार आचरण करें, तत्पश्चात कारण पूछें । यदि गुरु कहें, ‘माता-पिता के पास जाओ एवं उनकी बात मानो’, तब भी बुरा न मानकर गुरु के कहे अनुसार ही करें । ‘गुरु मुझे अपने से दूर कर रहे हैं’, ‘माता-पिता के पास जाओ’ ऐसा कहते हैं; परंतु ‘माता-पिता के पास जाना माया का भाग है’ इत्यादि विचार मन में लाना उचित नहीं है । गुरु के ‘जा’ कहने में भी कुछ उद्देश्य होता है । संत ज्ञानेश्वर के पिता विठ्ठलपंतजी ने संसार त्यागकर संन्यास लिया था । गुरु ने उनसे कहा ‘संसारी बनो’, क्योंकि गुरु जगत को संत ज्ञानेश्वर देना चाहते थे ।
आज्ञापालन से शिष्य को भी लाभ होता है ।
अ. स्वयं विचार न कर गुरु की बात मान लेनी चाहिए, इससे कोई कार्य कैसे संभव होगा, इसकी चिंता नहीं होती ।
आ. गुरु के कहे अनुसार सर्व करने से अपने मन एवं बुद्धि का प्रयोग नहीं होता; इसलिए मन, बुद्धि एवं अहं नष्ट करने का यह सर्वोत्तम मार्ग है ।
इसका तात्पर्य क्या है ?
‘जैसे मिट्टी का गोला कुम्हार के हाथों में निश्चल पडा रहता है, वैसे ही श्री गुरु के चरणों में पडे रहने पर श्री गुरु उसे उचित आकार दे सकते हैं ।’
४. अनेक बार मन में प्रश्न उठता है कि आज्ञापालन करना
अर्थात बुद्धि का उपयोग न करना है । तो बुद्धि किस काम की ?
गुरु के किसी उद्देश्य के अथवा उनके द्वारा बताई गई किसी सेवा के कार्यकारणभाव को भली-भांति समझकर, कम से कम समय में एवं उचित ढंग से उसे पूर्णत्वतक ले जाना गुरु को अपेक्षित होता है । गुरु यदि कहें, ‘पूजा करो’ और शिष्य बुद्धि का प्रयोग कर अधिकाधिक अच्छे ढंगसे पूजा करे, तो यह अवज्ञा नहीं होती; अपितु गुरु इस बात से प्रसन्न होते हैं ।
एक बार संत भक्तराज महाराजजी ने एक शिष्य से कहा, ‘‘गोवा पहुंचने पर श्री. पानसरे को प्रसाद देना । वह मेरा पुराना भक्त है ।’’ जब वह शिष्य श्री. पानसरे के घर गया, तो उसे पता चला कि श्री. पानसरे चिकित्सालय में भर्ती हैं । वह वहीं से चिकित्सालय गया । उसने देखा कि श्री. पानसरे अचेत पडे हैं । उसने प्रसाद का एक कण उनके मुख में डाल दिया । गुरु-आज्ञापालन की इच्छा यदि हो, तो ऐसे प्रसंगों में क्या करना चाहिए, यह बुद्धि को अपनेआप सूझता है । अन्य कोई होता, तो वह श्री. पानसरे के घर जाकर द्वार खोलनेवाले के हाथ में प्रसाद थमा देता और महाराजजी का संदेश देकर लौट जाता ।