जिस साधक को गुरुप्राप्ति नहीं हुई, उसकी प्रगति वर्ष में साधारणतः ०.२५ प्रतिशत हो सकती है और वह भी अधिकाधिक ५०-५५ प्रतिशत स्तरतक; जबकि गुरु के मार्गदर्शनानुसार साधना करनेवाला वर्ष में २-३ प्रतिशत प्रगति कर सकता है और उसका ८०-१०० प्रतिशत स्तरतक पहुंचना सम्भव है ।
गुरुनिंदा एवं गुरुद्रोह क्या है ? गुरु के परित्याग का परिणाम क्या होता है ?
क्या गुरु के दोषों का वर्णन करना ठीक है ? शिष्य की कौन सी कृति से गुरुद्रोह तथा गुरुनिंदा का पाप लगता है ?
गुरुचरित्र के अनुसार –
जो शिष्य अपने गुरु के गुण-दोष का वर्णन सदा हर्ष से करता है, तो वह परिपूर्ण ज्ञान कैसे पाएगा एवं साधना में कब स्थिर होगा ? अर्थात ऐसे शिष्यों की स्थिर साधना नहीं हो सकती ।
शास्त्र में बताए गुरुद्रोह आगे दिए अनुसार हैं ।
१. गुरु को मनुष्य रूप समझना एवं व्यावहारिक दृष्टि से उनके साथ आचरण करना
२. गुरु का महत्त्व (मूल्य) उनकी बाह्य स्थिति से समझना
३. लोगों के बताने पर गुरु के विषय में मन कलुषित करना
४. गुरु से अनादरपूर्ण आचरण करना
५. गुरु से मित्रवत अथवा समतुल्य समझकर आचरण करना
६. गुरु की करुणा, प्रेम अथवा वे सहज उपलब्ध होने के कारण ‘अतिपरिचयात् अवज्ञा’ इस न्याय से उनकी अवज्ञा करना
७. गुरु से अहंकारपूर्ण आचरण करना
८. गुरु को हमारी आवश्यकता है, हमारा धन, ज्ञान, अनुभव अथवा मार्गदर्शन की आवश्यकता है, ऐसा लगना
९. केवल संकटनिवारण अथवा स्वार्थपूर्ति हेतु गुरु के पास जाना
गुरु द्वारा त्यागा हुआ तीनों ही लोकों द्वारा त्यागे जाने के समान है ।