घर-द्वार का त्याग कर गुरुसान्निध्य में रहना साधना में अति शीघ्र प्रगति का मार्ग है । गुरु के प्रति खरे प्रेम की उत्पत्ति हेतु इस सान्निध्य की आवश्यकता है । गुरु के साथ रहने पर ही विषयों पर अंकुश रहता है । इस निकट संबंध के पीछे जीवन्मुक्तों का यह उद्देश्य होता है कि उनके संपर्क में रहने से शिष्य की मनोदेह एवं वासनादेह अधिक शुद्ध एवं सुसंवादी बनें । भारत के पूर्वकालीन गुरुकुलपद्धति के अंतर्गत विद्यार्थी गुरु के आश्रम में रहकर ही सीखते थे ।
गुरुप्राप्तिपूर्व एवं पश्चात, आध्यात्मिक उन्नति किस पर निर्भर है ?
जिस साधक को गुरुप्राप्ति नहीं हुई, उसकी प्रगति वर्ष में साधारणतः ०.२५ प्रतिशत हो सकती है और वह भी अधिकाधिक ५०-५५ प्रतिशत स्तरतक; जबकि गुरु के मार्गदर्शनानुसार साधना करनेवाला वर्ष में २-३ प्रतिशत प्रगति कर सकता है और उसका ८०-१०० प्रतिशत स्तरतक पहुंचना सम्भव है ।
आश्रमजीवन का महत्त्व क्या है और आश्रम में कैसे रहना चाहिए ?
घरका माया-मोह घटाने, देहबुद्धि नष्ट करने, दूसरों को अपने परिवार का सदस्य समझने एवं अहंभाव दूर करने हेतु आश्रमजीवन अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है ।
१. आश्रम में धर्मशाला जैसे न रहें ।
२. गुरु का प्रसाद मानकर गुरु की चप्पलें, आश्रम के कंबल इत्यादि वस्तुओं को उनकी आज्ञा बिना न ले जाएं !
३. आश्रम में हमारा रहन-सहन ऐसा होना चाहिए, जिससे किसी पर भी कोई भार न पडे । ध्यान रहे कि हमारे रहने से अन्य आश्रमवासियों पर अधिक कार्यभार न पडे, मानसिक तनाव न आए एवं आश्रम पर आर्थिक भार भी न पडे । अपने ओढने-बिछाने की व्यवस्था स्वयं करें ।
४. शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक, इन तीनों दृष्टि से आश्रम में हमारा आचरण उपयुक्त होना चाहिए । आश्रम के समस्त कार्यों को गुरुसेवा समझकर करें ।
५. आश्रम के नियमों का यथासंभव परिपूर्ण पालन करें ।
६. आश्रमजीवन का महत्त्व : घरका माया-मोह घटाने, देहबुद्धि नष्ट करने, दूसरों को अपने परिवार का सदस्य समझने एवं अहंभाव दूर करने हेतु आश्रमजीवन अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है ।
शिष्य को प्रश्नोत्तर में उलझने की अपेक्षा
साधना हेतु समय देना चाहिए । इसका कारण क्या है ?
साधना का उद्देश्य मनोलय एवं बुद्धिलय करना है । जबतक शिष्य प्रश्नोत्तर में उलझा रहेगा, तबतक उसके मन में प्रश्न उत्पन्न करने का एवं बुद्धि द्वारा उत्तर मिलने पर उत्पन्न सुख भोगने का कार्य जारी रहेगा । प्रश्नोत्तर की अपेक्षा साधना के लिए समय देने सेे प्रगति शीघ्र होती है अर्थात सर्व प्रश्नों के उत्तर अंतर्मन से प्राप्त होते हैं । बाहर से उत्तरप्राप्ति का मार्ग बंद होते ही, अंतर्मन से उत्तर मिलने का मार्ग शीघ्र खुल जाता है ।
गुरु के प्रति कृतज्ञता का विशेष महत्त्व क्यों है ?
इसका कारण यह है कि हमारी आध्यात्मिक उन्नति (प्रमुखतः) गुरु के कारण ही हो रही है । यह भान न रहा, तो अहंभाव कभी भी जागृत हो सकता है । ‘मेरा नामजप गुरु के कारण अपनेआप होने लगा’, इस ज्ञान के कारण एक शिष्य को कृतज्ञतावश रोना आ जाता था ।