शिष्य

 

शिष्य किसे कहते हैं और शिष्यत्व का महत्त्व क्या है ?

आध्यात्मिक उन्नति हेतु जो गुरु द्वारा बताई साधना करता है, उसे ‘शिष्य’ कहते हैं । शिष्यत्व का महत्त्व यह है कि उसे देवऋण, ऋषिऋण, पितरऋण एवं समाजऋण चुकाने नहीं पडते ।

 

खरा शिष्य कौन है?

प.पू. भक्तराज महाराजजी ने कहा है –

‘जिसने पायो उसने छिपायो । वो नर सच्चा वो ही गुरु का बच्चा ।’

भावार्थ : ‘पायो’ अर्थात आत्मानुभूति की प्राप्ति । ‘छिपायो’ अर्थात आत्मानुभूति हो गई, इसके विषय में किसी को न बताना । (अर्थात शब्दों में उसकी व्याख्या नहीं कर सकते ।) ‘गुरु का बच्चा’ अर्थात गुरु का खरा शिष्य । किसी के पास अनमोल हीरा हो, तो वह सभी को दिखाता नहीं फिरता । उसी प्रकार, जिसे अनमोल आत्मानुभूति हो गई, उसके सन्दर्भ में वह किसी को कुछ नहीं कहता । अहंभाव न होने के कारण ही उसे यह अनुभूति प्राप्त होती है एवं इसीलिए वह उस विषय पर बोलता नहीं है ।

 

गुरु को ढूंढने का प्रयत्न न करें । इसका कारण क्या है?

गुरु ढूंढने से नहीं मिलते; क्योंकि गुरुतत्त्व सूक्ष्मतम है तथा साधक को केवल स्थूल का एवं कभी-कभी थोडा सूक्ष्म का ज्ञान होता है । अध्यात्म में शिष्य गुरु को धारण नहीं करता; अपितु गुरु ही शिष्य को अपनाते हैं अर्थात, वे ही शिष्य को चुनते हैं तथा उसे तैयार करते हैं । जब साधक का आध्यात्मिक स्तर (टिप्पणी) ५५ प्रतशित से अधिक हो जाता है, तो गुरु स्वयं उसके पास आकर उसे शिष्य के रूप में स्वीकार करते हैं । किसी साधक का स्तर केवल ४० प्रतिशत हो; परंतु उसमें मुमुक्षुत्व तीव्र है, तो भी उसे गुरुप्राप्ति होती है । तात्पर्य यह कि गुरु ढूंढने के प्रयत्न की अपेक्षा शिष्य कहलाने योग्य बनने का प्रयत्न करें ।

*** टिप्पणी – प्रत्येक व्यक्ति में सत्त्व, रज एवं तम, ये त्रिगुण होते हैं । व्यक्ति द्वारा साधना, अर्थात ईश्‍वरप्राप्ति के लिए प्रयत्न आरम्भ करने पर उसमें विद्यमान रज-तम गुणों की मात्रा घटने लगती है एवं सत्त्वगुण की मात्रा बढने लगती है । सत्त्वगुण की मात्रा पर आध्यात्मिक स्तर निर्भर करता है । सत्त्वगुण की मात्रा जितनी अधिक, आध्यात्मिक स्तर उतना अधिक होता है । सामान्य व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर २० प्रतिशत होता है, जबकि मोक्षप्राप्त व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर १०० प्रतिशत होता है एवं तब वह त्रिगुणातीत हो जाता है ।

 

कहते हैं कि न तो कभी गुरु की परीक्षा लें और
न ही अपने आपको किसी का शिष्य समझें ! ऐसा क्यों ?

यदि हम ऐसा सोचें कि गुरु को परखने के पश्‍चात ही उन पर श्रद्धा रखेंगे, तो उनकी परीक्षा लेनी पडेगी । परीक्षक का पद परीक्षार्थी की अपेक्षा ऊंचा ही होता है । यदि अपने आपको परीक्षक मानते हों, तब परीक्षार्थी को गुरु कैसे मान सकते हैं ?

साथ ही ‘मैं अमुक गुरु का शिष्य हूं’, ऐसा भी नहीं समझना चाहिए; अपितु गुरु को ही कहना चाहिए, ‘यह मेरा शिष्य है ।’ यदि कोई युवक स्वयं ही मन में सोच ले कि एक विशेष युवती उसकी प्रेमिका है, तो इसका कोई लाभ नहीं होगा । युवती को भी उसे स्वीकारना चाहिए । गुरु-शिष्य का संबंध भी कुछ इसी प्रकार का है ।

 

गुरुप्राप्ति एवं गुरुकृपा होने हेतु क्या करें ?

तीव्र मुमुक्षुत्व अथवा गुरुप्राप्ति की तीव्र उत्कंठा, इस एक गुण के कारण गुरुप्राप्ति शीघ्र होती है एवं गुरुकृपा सदा बनी रहती है । किशोरावस्था में जैसे कोई युवक किसी युवती का प्रेम पाने के लिए दिन-रात यही विचार एवं प्रयत्न करता है कि ‘मैं क्या करूं जिससे वह प्रसन्न होगी’, ठीक उसी प्रकार गुरु मुझे ‘अपना’ कहें, मुझ पर उनकी कृपादृष्टि हो, दिन-रात इसी बात का स्मरण कर, ‘मैं क्या करूं जिससे वे प्रसन्न होंगे’, इस दृष्टि से प्रयत्न करना अति आवश्यक है । आद्य तीन युगों की तुलना में कलियुग में गुरुप्राप्ति एवं गुरुकृपा होना कठिन नहीं है । यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि गुरुकृपा के बिना गुरुप्राप्ति नहीं होती । भविष्य में कौन उनका शिष्य होगा, यह गुरु को पहले से ही ज्ञात होता है । गुरुप्राप्ति हेतु एवं गुरुकृपा बनाए रखने हेतु गुरुकृपायोगानुसार साधना के अंतर्गत नामजप, सत्संग, सत्सेवा, त्याग, प्रीति, स्वभावदोष-निर्मूलन, अहं-निर्मूलन एवं भावजागृति, ये अष्टांग सूत्र निरंतर आचरण में लाने होते हैं ।

 

गुरुकृपा स्थायी रूप से टिकाए रखने के लिए क्या करना अनिवार्य है ?

गुरुप्राप्ति होते ही एवं गुरुमंत्र मिलते ही गुरुकृपा आरंभ होती है । उसे अखंड बनाए रखने के लिए गुरु द्वारा बताई गई साधना जीवन भर करते रहना अनिवार्य है ।

संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ “शिष्य”

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