गुरुसंबंधी आलोचना अथवा अनुचित विचार एवं उनका खंडन !

क्या विज्ञानयुग में गुरु आवश्यक हैं ?

यह वास्तविकता है कि गुरु आवश्यक हैं, परंतु जिनके भी मन में यह प्रश्‍न आता है, उनके लिए मेरे कुछ प्रश्‍न है । यदि विज्ञान ही जीवन निर्वाह के लिए समर्थ है, तो मनोकामना पूर्ण करनेवाले मंदिरों में भीड क्यों बढ रही है ? समाज इतना दुःखी क्यों है ? व्यक्ति, परिवार और समाज में इतना तनाव क्यों बढ रहा है ? क्या  इसका कभी हमने विचार किया है ? जब हम इन प्रश्‍नों का उत्तर ढूंढेंगे, तब हमें हमारी असमर्थता ध्यान में आकर गुरू की आवश्यकता समझ में आएगी ।

हमें गुरु की आवश्यकता नहीं लगती, इसके कुछ और कारण भी हैं । हमें गत ७३ वर्षों में शिक्षा व्यवस्था से व्यवहार की जानकारी दी गई । परंतु अपने आत्मिक उन्नति के विषय में कहीं पर भी सिखाया नहीं गया । जीवन की सम-विषम स्थिति में आनंदमय जीवन कैसे बिताएं ? जीवन के दुःखों का क्या कारण है ? जन्म, मृत्यु और पुर्नजन्म क्या है ? पाप क्या है ? पुण्य क्या है ? यह सिखाया नहीं गया । यह सब सिखानेवाला एक ही शास्त्र है, वह है अध्यात्मशास्त्र ! यदि यह सिखाया जाता, तो गुरु की आवश्यकता हमें अवश्य ध्यान में आती ।

जिन्हें जीवन में यदि केवल खाने के लिए कमाना है और कमाने के लिए खाना है, तो उन्हें गुरु की कोई आवश्यकता नहीं है । परंतु यदि हमें मनुष्य जन्म मिला है । इस जन्म का मुझे सार्थक करना है । आनंदमय जीवन यापन करना है । जीवन के प्रत्येक क्षण स्थिर रहना है, तो गुरु के बिना विकल्प नहीं है ।

एक सर्वसामान्य उदाहरण आपको बताता हूं । जैसे छोटी-छोटी बातों के लिए भी हम सभी अन्यों का मार्गदर्शन लेते हैं । फिर वह अध्यापक हो, डॉक्टर हो अथवा अधिवक्ता, हम उनसे मार्गदर्शन लेते हैं । ऐसे में जो गुरू हमें जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति दिलाते हैं, उनका महत्त्व कितना होगा, हम इसकी कल्पना तक नहीं कर सकते ।

 

क्या माता-पिता हमारे गुरु नहीं हो सकते ?

ईश्‍वर जहां हमें जन्म देता है, वे माता-पिता हमारे गुरु
क्यों नहीं हो सकते है ? माता-पिता पहले गुरु हैं । वे सब सिखाते हैं । फिर
अध्यापक भी गुरु के रूप में जीवन में आते हैं । फिर किसी अन्य  गुरु की आवश्यक ही क्या है ?

१. हमारा जन्म हमारे पूर्वजन्म के कर्म के अनुसार किसी परिवार में होता है । जिनसे सबसे अधिक हमारे सुख-दुःख के लेन-देन हैं, ऐसे ही व्यक्ति परिवार के रूप में हमारे जीवन में आते हैं । इसलिए जहां माता-पिता भी अपने लेन-देन पूर्ण करने के लिए इस पृथ्वीपर आए हैं, वे हमारे गुरु कैसे हो सकते हैं ?

२. हमें माता-पिता से व्यावहारिक शिक्षा, संस्कार, मार्गदर्शन इत्यादि अवश्य मिल सकता है, पर जिनकी आध्यात्मिक दृष्टि से क्षमता नहीं है, साधना नहीं है, अध्यात्म का ज्ञान नहीं है, वे हमारे गुरु कैसे हो सकते हैं ?

३ . माता-पिता हमारे शरीर, मन, बुद्धि अथवा आर्थिक उन्नति, इस हेतु जीवनभर अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार प्रयास और त्याग करते रहते हैं । इसलिए व्यवहारिक विषयों पर वे अपने अनुभवों से आपके मार्गदर्शक अवश्य हो सकते हैं; परंतु गुरु का कार्य मन, बुद्धि और अहं के परे जाकर आपकी आत्मिक उन्नति करवाना है । गुरु आपके मन, बुद्धि और अहं का लय करवाकर आपको सर्वव्यापी ईश्‍वर की अनुभूति करवा देते हैं । इसलिए माता-पिता अथवा अध्यापक, इन्हें मार्गदर्शक अवश्य कह सकते हैं; परंतु गुरु नहीं !

४. अध्यापक निर्धारित समय में और केवल शब्दों के माध्यम से सिखाते हैं, जबकि गुरु चौबीस घंटे शब्द व शब्दातीत, इन दोनों माध्यमों से शिष्य का सतत मार्गदर्शन करते हैं । गुरु किसी भी संकट से शिष्य को तारते हैं, जबकि अध्यापक का विद्यार्थियों के व्यक्तिगत जीवन से अधिक संबंध नहीं होता । संक्षेप में, अध्यापक व विद्यार्थियों के आपसी संबंध कुछ घंटों तक और वह भी किसी विषय को सिखाने तक ही सीमित रहते हैं; परंतु गुरु तो शिष्यके संपूर्ण जीवन को व्याप लेते हैं ।

इसलिए माता-पिता और अध्यापक हमारे मार्गदर्शक हो सकते हैं, पर गुरु नहीं हो सकते ।

 

वर्तमान में अध्यात्म की दृष्टि से अनेक संतों के वीडियो यु-ट्युब पर हैं ।
ग्रंथ भी उपलब्ध हैं । तब ऐसी स्थिति में क्या प्रत्यक्ष गुरु की आवश्यकता है ? ऐसा क्यों ?

१. यु-ट्युब का ऑनलाईन माध्यम एवं ग्रंथों में सभी व्यावहारिक क्षेत्रों की जानकारी होती है । फिर पाठशाला क्यों जाना है ? विद्यालय और महाविद्यालय क्यों जाना है ? बीमार होने पर हम स्वयं ही पढकर दवाईं ले सकते है ना ? कोई अधिवक्ता हो, कोई चार्टड अकाऊंटट हो उन्हें भी ‘प्रैक्टिस’ करने की क्या आवश्यकता है ? जैसे व्यवहार में ग्रंथ उपलब्ध रहते हुए भी प्रत्येक व्यक्ति को अपने कार्य के अनुसार अधिवक्ता, इंजीनियर आदि सबके पास जाना पडता है, वहां जन्म और मृत्यु के चक्र से हम स्वयं कैसे मुक्त हो सकते हैं ? इसकारण जीवन-मृत्यु के चक्र से मुक्त करनेवाले प्रत्यक्ष गुरु की हमें आवश्यकता है ।

२. हम यु-ट्युब और ग्रंथ से जानकारी ले सकते हैं, पर उसे जीवन में उतारना मन की चंचलता के कारण एवं बुद्धि के निश्‍चय के अभाव के कारण कठिन होता है ।

३. अकेले साधना कर अपने बल पर ईश्‍वरप्राप्ति करना अत्यधिक कठिन है । इसकी तुलना में आध्यात्मिक क्षेत्र के किसी अधिकारी व्यक्ति की, अर्थात गुरु अथवा संत की कृपा प्राप्त कर लें, तो ईश्‍वरप्राप्ति का ध्येय शीघ्र साध्य होता है । उन्हीं की कृपा प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए । इसीलिए कहा गया है, ‘ये तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान । सीस दिळ जो गुरु मिलें, तो भी सस्ता जान ॥’ अर्थात गुरुप्राप्ति होना आवश्यक है ।

४. जैसे ११ वीं कक्षा में जाने के लिए १० वीं कक्षा का प्रमाणपत्र हमें आवश्यक होता है । वैसे ही अध्यात्म में अगली-अगली कक्षा है और गुरु ही आपको इसका प्रत्यक्ष मार्गदर्शन कर आगे-आगे लेकर जा सकते हैं । जैसे हम अपनी उत्तरपत्रिका नहीं जांचते, वैसे ही हम अपनी आध्यात्मिक प्रगति का आकलन ग्रंथ और प्रवचन सुनकर नहीं कर सकते ।

५. गुरु शिष्य का अज्ञान नष्ट कर, उसकी आध्यात्मिक उन्नति हो, इस उद्देश्य से उसे साधना बताकर उससे वह साधना करवाते हैं और अनुभूति भी प्रदान करते हैं । गुरु का ध्यान शिष्य की ऐहिक सुख की ओर नहीं होता (क्योंकि वह प्रारब्धानुसार होता है), अपितु केवल उसकी आध्यात्मिक उन्नति की ओर होता है ।

ऐसे अनेक कारणों से प्रत्यक्ष गुरु की आवश्यकता है ।

 

समाज में धर्म के नामपर जो आडंबर चल रहा है ।
ऐसे में गुरु करेंगे, तो कहीं हम फंस तो नहीं जाएंगे न ?

समाज की यही स्थिति है । समाज में ८०% गुरु वास्तव में खरे गुरु न होकर ढोंगी अथवा अनाधिकारी ही होते हैं; परंतु हमारे धर्मग्रंथ गुरु को कैसे पहचानें ? इस विषय में विस्तार से मार्गदर्शन करते हैं ।

१. एक उदाहरण आपको बताता हूं । एक संत उनके दर्शन हेतु आए और प्रत्येक व्यक्ति से उसका नाम व आयु पूछते हैं । उत्तर मिलने पर कहते हैं, ‘‘दोनों उत्तर गलत हैं । नाम व आयु शरीर को लागू होते हैं । तुम तो आत्मा हो । आत्मा का न तो नाम होता है और न ही आयु ।’’ फिर अध्यात्म पर बोलते व पूछते हैं, ‘‘साधना करते हो क्या ?’’ यदि किसी ने ‘हां’ में उत्तर दिया तो पूछते हैं, ‘‘कौन-सी ?’’ यदि उत्तर मिला, ‘गुरुद्वारा बताई गई’ तो कहते हैं, ‘‘सामान्य प्रश्‍नोंके उत्तर तुम नहीं दे पाते । फिर गुरुने तुम्हें क्या सिखाया है ? इन प्रश्‍नोंके उत्तर खरा गुरु ही दे सकता है । तुम मेरे पास आओ । मैं तुम्हे सिखाऊंगा ।’’ इसप्रकार अन्य गुरुओं के प्रति हीनभावना निर्माण कर, अपनी श्रेष्ठता दिखानेवाले शिष्य का उद्धार क्या करेंगे ?

२. दासबोध में आता है । जो अद्वैत पर पांडित्यपूर्ण प्रवचन देता है, परंतु विषयों के प्रति अति मोह है, ऐसे गुरु से कुछ भी नहीं प्राप्त हो सकता ।

३. एक गुरु स्वयं घडी का उपयोग नहीं करते थे । उसका कारण यह बताते थे कि घड़ी के पट्टे का, बंधन नहीं चाहिए; परंतु हर पंद्रह-बीस मिनट में दूसरों से पूछते ‘‘कितने बजे हैं ?’’ यह आडंबर नहीं, तो क्या है ?

४. जिनमें गुरुपद की चाह है और जिन्होंने अध्यात्म के क्षेत्र में थोडी-बहुत प्रगति भी की है, वे ‘इसे यह साधना देना, उसे वह साधना देना’, ऐसा करते हैं । इससे साधना करनेवालों की प्रगति तो होती है, परंतु वे स्वयं वहीं के वहीं रह जाते हैं । इसप्रकार जिनमें लोकैषणा हो, वे गुरु नहीं हो सकते ।

५. शिष्य को सर्व ज्ञान देने से अपना कुछ महत्त्व नहीं रह जाएगा, इस भयवश कुछ गुरु शिष्यों को सर्व ज्ञान नहीं देते हैं ।

ऐसे कई उदाहरण है । समर्थ रामदासस्वामीजी ने दासबोध में स्पष्ट कहा है ‘ऐसे (ढोंगी) गुरु कौड़ी में तीन मिलें, तब भी ठुकरा देने चाहिए । वर्तमान में समाज के प्रत्येक क्षेत्र में ऐसा है । दूधवाले से लेकर डॉक्टर, अधिवक्ता इत्यादि प्रत्येक क्षेत्र में आज लोगों को ठगनेवाले ही बैठे हैं । इसीप्रकार धर्म के क्षेत्र में भी ठगनेवाले हैं । फिर क्या हम डॉक्टर के पास नहीं जाते ? अधिवक्ता के पास नहीं जाते ? अवश्य जाते हैं । वैसे ही धर्म के क्षेत्र में भी आडंबर है, इसलिए गुरु की आवश्यकता ही नहीं, ऐसे समझना गलत है । सच्चे गुरु और भोंदू गुरु हम कैसे पहचान सकते हैं; इसकी सभी को जानकारी हो, इस उद्देश्य से हमने ‘पाखंडी साधु, संत एवं महाराज’, यह ग्रंथ प्रकाशित किया है ।

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