एक सर्वोत्तम शिक्षकके समान ही गुरुमें सर्व गुण विद्यमान होते हैं । गुरुका खरा गुण है आत्मानुभूति; परन्तु मात्र बुद्धिद्वारा उसका ज्ञान होना असंभव है ।
१. वे सर्वज्ञ होते हैं !
श्री ब्रह्मचैतन्य गोंदवलेकर महाराज का कथन – ‘तुम स्वयंको जितना जानते हो, उससे कहीं अधिक मैं तुम्हें जानता हूं । जगतका नियम यह है कि जिसे जिसका जितना सान्निध्य मिलता है, उतना ही अधिक उससे परिचय होता है । तुम्हें देहका सबसे अधिक सान्निध्य प्राप्त है । यह देह इसी जन्मतक सीमित है । तुम उतना ही जान सकते हो । तुम्हें जबसे जीवदशा प्राप्त हुई, तबसे जो-जो देह तुमने धारण किए हैं, रामकृपासे वे सब मुझे ज्ञात होते हैं । इससे समझ आएगा कि मैं तुम्हें जानता हूं ।’
गुरुकी सर्वज्ञताके सन्दर्भमें हुई प्रतीति – ‘एक भक्त प.पू (परम पूज्य) भक्तराज महाराजजीको (बाबाको) पत्र भेजते थे । प.पू. बाबासे मिलनेपर बाबा उन्हें पत्रमें लिखे प्रश्नोंके उत्तर देते थे । इसलिए उन्हें (भक्तको) ऐसा लगता था कि बाबा पत्र पढते हैं । एक बार प.पू. भक्तराज महाराजजीके इंदौर स्थित आश्रमको समेटते समय मुझे वे सर्व पत्र मिले । उन्हें खोला भी नहीं गया था । गुरुको सूक्ष्मसे सर्व ज्ञात होता है, यह मैंने उस समय अनुभव किया ।’ – डॉ. आठवले (वर्ष २००७)
२. उनमें अपने शिष्यको ज्ञान देनेकी उत्कंठा होती है !
अपने गुरुसे एवं अन्य सन्तोंसे जो ज्ञान प्राप्त हुआ, वह शिष्यको अपने उदार हाथोंसे देनेकी गुरुमें उत्कंठा रहती है ।
३. जो बात माने, ऐसे शिष्यको ही उसकी पात्रतानुसार चरण-दर-चरण सिखाते हैं !
(हे शिष्य, नामधारक,) कोई सूत्र बतानेपर वह तुम एकनिष्ठासे (श्रद्धासे) एवं भक्तिसे स्वीकारोगे, तभी मैं तुम्हें बताऊंगा और जो मैं बताऊं, वह तुम एकनिष्ठासे आचरणमें लाओ । (गुरुचरित्र, अध्याय ४७, पंक्ति १४ का अनुवाद)
आध्यात्मिक दृष्टिसे वास्तविक सत्पात्र वही होता है जो जीव गुरुकी ओरसे प्रक्षेपित चैतन्य ग्रहण करने हेतु पात्र होता है, वह आध्यात्मिक दृष्टिसे खरा सत्पात्र होता है ।
जिस प्रकार छोटे बच्चोंको बोलना सिखाते समय आरंभमें छोटे शब्द सिखाते हैं, चलना सिखाते समय धीरे-धीरे चलाते हैं, उसी प्रकार गुरु भी शिष्यको धीरे-धीरे चरण-प्रति-चरण सिखाते हैं । अंतमें गुरुचरणोंमें तन, मन एवं धन अर्थात सर्वस्वका त्याग करना पडता है; परंतु आरंभकी अवस्थाके साधकके लिए यह सुनना भी अत्यंत कठिन होता है ।
४. सर्व शिष्योंके प्रति समभाव रहता है !
शिष्योंके भावानुसार गुरुका शिष्योंके प्रति प्रेम न्यूनाधिक होना स्वाभाविक है, जिस प्रकार माता-पिताका अपने बच्चोंके प्रति प्रेम न्यूनाधिक होता है; परंतु जिस प्रकार अच्छे माता-पिता यह दर्शाते नहीं, उसी प्रकार गुरु भी प्रकट नहीं होने देते ।
‘मेघ सर्वत्र समान ही वर्षा करते हैं; परंतु गहरे स्थानमें जलका संचय होता है एवं अकडकर खडे पर्वत शुष्क ही रह जाते हैं । उसी प्रकार संतोंमें भेदभाव नहीं होता । उनकी दयादृष्टि सभीपर समान ही होती है; परंतु जो शुद्ध अंतःकरणसे उनमें लीन होता है, उसे श्रद्धानुसार यथोचित फलप्राप्ति होती है ।’
५. शिष्य से साधना करवानेकी क्षमता होती है और तीव्र
मुमुक्षुत्व से संपन्न शिष्य से कोई भूल हो जानेपर उसे संभाल लेते हैं !
एकनाथी भागवत के अनुसार ‘जो शिष्य में वैराग्य उत्पन्न कर सकते हैं, वही हैं खरे सद्गुरु ।’ गुरु जानते हैं कि शिष्यको कौनसी साधना करनी चाहिए । उसे केवल साधना बताकर वे नहीं रुकते; अपितु उससे साधना करवाते हैं । यही गुरुकी खरी शिक्षा होती है । गुरु जिसपर कृपा करते हैं, उसका तन, मन, धन, सुख, दुःख, अहं इत्यादि सर्वका हरण कर लेते हैं । अर्थात शिष्यसे सर्वस्वके त्यागकी सिद्धता करवाते हैं ।
६. गुरुदक्षिणाकी अपेक्षा नहीं रखते हैं ! इसका कारण क्या है ?
१. वैराग्यद्वारा तथा ‘मैं’पन नष्ट हो जानेके कारण गुरुको गुरुपदकी प्राप्ति होती है, इसलिए ‘हमें कुछ मिले’ ऐसी उनकी अपेक्षा नहीं रहती ।
२. गुरुको उनके गुरुसे ज्ञान निःशुल्क प्राप्त होता है, इसलिए वे भी आगे निःशुल्क ही देते हैं ।
३. ईश्वरीय ज्ञान अनमोल है, इसलिए गुरु उसका मूल्यांकन भी नहीं करते ।