कभी-कभी ध्यानमार्ग का अनुसरण करनेवाले योगी ध्यान का आधार लेते हैं; परंतु जो आत्मप्रेरित है, सहज ही आरंभ होता है, वही खरा ध्यान है । यह सहजध्यान आरंभ करने हेतु गुरु की आवश्यकता प्रतीत होती है; क्योंकि केवल उन्हीं की अंतःस्थिति उच्च श्रेणी की होती है । गुरु के कारण आरंभ हुआ सहजध्यान ही अंत में योगी को पूर्णत्व की प्राप्ति करवा सकता है ।
‘कठोर परिश्रम से जिस आज्ञाचक्र तक योगी पहुंचता है, उस आज्ञाचक्र तक साधक गुरु द्वारा दिए गए नामजप से बिना किसी कष्ट के पहुंच सकता है । वास्तव में गुरु-आज्ञा का यथार्थ पालन करने के अभ्यास के कारण गुरुचरणों के प्रति प्रेम में वृद्धि हो जाने पर वह अनायास (अनजाने ही) आज्ञाचक्र तक पहुंच जाता है । अधिकांश योगी मात्र आज्ञाचक्र से आगे न जा पाने के कारण प्रगति के लिए प्रयत्नशील रहने पर भी पीछे रह जाते हैं ।’ – प.पू. काणे महाराज, नारायणगांव, जनपद पुणे, महाराष्ट्र.
संन्यास यदि गुरु ने दिया हो, तो ही घर-द्वार के त्याग का लाभ होता है, अन्यथा नहीं ! ऐसा क्यों ?
संन्यासियों को ज्ञानयोग द्वारा वैराग्य की प्राप्ति होती है । कुछ लोग वैराग्य की चरमसीमा होने के पश्चात ही संन्यास लेते हैं एवं घर-द्वार का त्याग कर भ्रमण करते हैं; परंतु यह संन्यास यदि गुरु ने दिया हो तो ही घर-द्वार के त्याग का लाभ होता है । गुरु की आज्ञा बिना संन्यास लेने पर कुछ लोग हिमालय की ठंड में अथवा अन्यत्र भूख से मर भी जाते हैं ।
ज्ञानयोग हो अथवा भक्तियोग, गुरु का महत्त्व अनन्यसाधारण है ! ऐसा क्यों ?
१. वेद, उपनिषद् इत्यादि के बहुवाक्यों का (भिन्न-भिन्न अर्थ दर्शानेवाले वाक्यों का) एकवाक्यीकरण गुरुकृपा द्वारा होता है । बाह्यतः उनके शब्दार्थ यद्यपि भिन्न प्रतीत होते हों; परंतु भावार्थ एक ही कैसे है, यह गुरुकृपा द्वारा ज्ञात होता है । (श्री दासबोध, दशक ६, समास ६, पंक्ति २६ का अर्थ)
२. महाराष्ट्र के एक संत नामदेव भक्तियोग के अनुसार साधना करते थे । एक बार वे बोले, ‘‘मुझ से प्रत्यक्ष पांडुरंग बोलते हैं, तब भी संतों ने मुझे ‘कच्चा मटका’ कहा, इस बात से नामदेव क्रोधित होकर पांडुरंगके पास गए ।
संत नामदेवजी का प्रत्यक्ष पांडुरंग से हुआ संवाद – नामदेव महाराज कहते हैं, ‘(ईश्वरप्राप्ति के लिए साधना करनी होती है ।) उसके लिए सद्गुरु की सेवा करना आवश्यक है; परंतु अब मैंने तुम्हें पा लिया है । (हम दोनों निरंतर साथ ही रहते हैं ।) तो सद्गुरु का क्या काम ? एक ऊंचे पेड पर लगे फल को पाने के लिए पेड पर चढना आवश्यक है; परंतु फल प्राप्त हो जाने पर पेड पर चढने की क्या आवश्यकता है ? (नामदेवचरित्र, अभंग १११, पंक्ति ३ एवं ४ का अर्थ)
इसके पश्चात भगवान कहते हैं, अज्ञान को छोडकर सद्गुरु की सेवा करो । तुम्हारे प्रति प्रेम के कारण ही मैं माया का रूप धारण कर तुम से लीला रचाता हूं । जब तक तुम सद्गुरु की सेवा नहीं करोगे, तब तक मैं तुम्हारे लिए स्वप्न में प्राप्त संपत्ति जैसा हूं । मेरे द्वारा निर्मित संसार के बंधन से सद्गुरु की इच्छा बिना तू नहीं छूटेगा । (नामदेवचरित्र, अभंग १११, पंक्ति ५, ६ का अर्थ)
भगवान का उत्तर अत्यधिक स्पष्ट एवं बोधप्रद है । भक्त को चाहे प्रतीत हो कि उसे परमेश्वरप्राप्ति हो गई है, तब भी वह खोटी है । वह परमेश्वर की माया में ही विचरने समान है; अतः पिंड एवं ब्रह्मांड में विद्यमान एक ही परमात्मा का ज्ञान सद्गुरु से पाने हेतु पांडुरंग ने नामदेव को औंढ्या नागनाथ के विसोबा खेचर के पास भेजा ।’ (?)
गुरु के प्रवचन के समय ऋषि-मुनि एवं देवताओं की उपस्थिति
गुरु जब अध्यात्मविवेचन करते हैं, तब वहां महान शक्तियों का, ऋषि-मुनियों का एवं देवताओं का आगमन होता है । उनके अस्तित्व का भी शिष्यों को लाभ होता है ।