पंढरपुर के श्री विठ्ठल का पूजन करनेवाले सेवादार श्री. मुकुंद भगवान पुजारी द्वारा बताया गया श्री विठ्ठल का मूर्तिविज्ञान
१. विठ्ठलमूर्ति की विशेषताएं
पूर्ण मूर्ति
मूर्ति की कमर का नीचला भाग ब्रह्मास्वरूप, कमर से लेकर गर्दनतक का भाग श्रीविष्णुस्वरूप, तो मस्तक का भाग शिवस्वरूप है ।
काला रंग
चाहे मूर्ति का रंग काला हो; परंतु सच्चे भक्त को उसके सूक्ष्म-दर्शनेंद्रिय से मूर्ति श्वेत रंग की ही दिखाई देती है ।
भालप्रदेश
यह प्रदेश आज्ञाचक्र से तेज की वर्षा करता है ।
कमरपर हाथ
कटीप्रदेश के उपर ज्ञानेंद्रिय, तो नीचे कर्मेंद्रिय हैं । कमरपर हाथ का अर्थ कर्मेंद्रिय उनके अधीन हैं ।
भक्त पुंडलिक द्वारा दी गई ईंट
ईंट पृथ्वीतत्त्व का प्रतीक है । पृथ्वीतत्त्व से ही गृहस्थाश्रम का आरंभ होता है । इस प्रकार से विठ्ठल की मूर्ति में गृहस्थी तथा अध्यात्म का सुयोग्यरूप से मेल बिठाया गया है ।
२. पांडुरंग
योगमार्ग में श्वेत रंग को निर्गुणतत्त्व का प्रतीक माना जाता है । सगुणरूप को श्री विठ्ठल, तो निर्गुणरूप को पांडुरंग कहा जाता है । हिमालय में अधिकांश शिवलिंग श्वेत रंग के होते हैं; इसलिए पांडुरंग ही महादेव तथा विठ्ठल हैं ।
३. मुक्तकेशी दासी
पांडुरंग के पग में मुक्तकेशी दासी की उंगलियां धंसी हुई हैं । श्री विठ्ठल के चरणपर उस प्रकार से उंगली का चिन्ह है । श्री विठ्ठल के चरणों में मुक्ति मिलती है; परंतु भक्त पुंडलिक के लिए प्रत्यक्षरूप से विठ्ठल अवतरित हुए हैं । अतः मुक्ति की अपेक्षा भक्ति श्रेष्ठ है । ‘भक्ति कर ही मुक्ति मिलती है’, ऐसा इसका आध्यात्मिक अर्थ है ।
४. श्री विठ्ठल के समचरण
श्री विठ्ठल की दृष्टि में सभी समान हैं । यहां कोई छोटा और बडा नहीं हैं । पांडुरंग समानता के प्रतीक हैं ।
५. श्री विठ्ठल के पैरों में स्थित तोडे
श्री विठ्ठल के पैरों में स्थित तोडे, यह संदेश देते हैं कि मनुष्य को स्वयंपर बंधन डाल लेने चाहिएं । हमें किस मार्ग से जाना है, इसे सुनिश्चि करना चाहिए । हम वाममार्गपर हैं अथवा अच्छे मार्गपर हैं, इसे परख लेना चाहिए । अच्छे मार्गपर अग्रसर होते हुए भी हमारे पैरो में अहंकार की शृंखला नहीं होनी चाहिए । अतः अच्छे मार्गपर अग्रसर होते हुए भी कुछ बंधनों का पालन करना आवश्यक है । इसके साथ ही ये तोडे यह भी संदेश देते हैं कि हमें अच्छा-बुरा कुछ न मानकर साक्षीभाव से रहना चाहिए ।
६. श्री विठ्ठल के दोनों पैरों में स्थित लाठी
जब पालतु पशु अनियंत्रित होकर दौडने लगते हैं, तब पशुपालक लाठी की सहायता से उनको अपने नियंत्रण में कर लेता है । उसी प्रकार से हममें व्याप्त षड्रिपु भी बीच-बीच में उछलने लगते हैं; इसलिए उनपर साधनारूपी लाठी से अंकुश रखना पडता है । संयम से रहना होता है । यह लाठी उसीका प्रतीक है ।
७. श्री विठ्ठल के पितांबर का छोर
देवता का पितांबर सोने का होता है । ध्यानमार्ग में तेज के प्रतीक के रूप में नील वर्ण, श्वेत रंग तथा अंत में सुवर्ण का रंग, ऐसा बताया गया है । उस सुवर्णतेज का प्रतीक है श्री विठ्ठल के पितांबर का छोर !
८. कमर के वासरीवेल की करधनी
विठ्ठल षड्रिपु तथा वासनाओं को स्वयं के कमर को बांधे हुए हैं । इसका अर्थ विठ्ठल कमर कसकर किसी भी बात के लिए सिद्ध हैं । मनुष्य को भी ऐसा ही करना चाहिए ।
९. अर्धांगिनी रुक्मिणी को बैठने के लिए दिया गया स्थान
स्री और पुरुष ये दोनों एक ही हैं । बिना स्री के पुरुष अधुरा है, उसीका प्रतीक यह स्थान है ।
१०. श्रीवत्सलांच्छन
भृगुऋषि द्वारा देवता की छातीपर मारी गई लात का यह चिन्ह है । श्री विठ्ठल ने ऋषि द्वारा मारी गई लात को अपनी छातीपर झेला । उस समय श्री विठ्ठलजी ने किसी भी प्रकार का अहंकार नहीं रखा । वे बिना किसी परिवाद अपनी छातीपर उस चिन्ह को बनाए हुए हैं । इससे श्री विठ्ठल हमें क्रोध तथा अहं दूर करने के लिए कह रहे हैं ।
११. बाएं हाथ में कमल की पंखुडी
यह शांति का प्रतीक है ।
१२. कान में मकराकार कुंडल
ये कुंडल हमें हम में व्याप्त विकारों को भूलने के लिए कह रहे हैं । ध्यानसाधना के द्वारा हम नवद्वारों में से कान को छोडकर अन्य सभी द्वार बंद कर सकते हैं । कान को बंद करना, तो केवल निर्विकल्प समाधि में ही संभव होता है । मत्स्य आपतत्त्व का प्रतीक है । जबतक हम आपतत्त्वपर विजय प्राप्त नहीं करते, तबतक हम वायुतत्त्वतक पहुंच नहीं सकते । वायुतत्त्वतक पहुंचने के पश्चात हमें निर्विकल्प समाधि में जाना तथा ध्वनिपर नियंत्रण पाना अर्थात कान बंद करना सुलभ होता है । ये मकराकार कुंडल हमें, यही बताते हैं ।
१३. श्री विठ्ठल के मस्तकपर महादेव के शिवलिंग का आकार
भ्रूमध्य के उपर चिदाकाश है । इस चिदाकाश में स्थित शुद्ध भान को ही हम परमात्मा कहते हैं । यह महादेव का निर्गुण तत्त्व है । श्री विठ्ठल के दर्शन का आरंभ होता है ईंट से अर्थात उनके सगुणरूप से और अंत होता है, महादेव के शिवलिंग के आकार के दर्शन में ! साधना में ‘सोहम्, सोहम्’ अथवा ‘हंसोहम्’ बताया गया है । ‘सोहम्, सोहम्’ कहते हुए हमारी सांस स्थिर बन जाती है तथा तब हंस अवस्था होती है । तत्पश्चात सांस चिदाकाश पहुंचती है । इस चिदाकाश में व्याप्त जो अहंरहित संपूर्ण शुद्ध भान है, वह सोहम् अथवा अहं ब्रह्मास्मि । अर्थात ‘मैं ब्रह्म हूं’, इसका भान ! (श्रीक्षेत्र पंढरपुर की महिमा तथा श्री विठ्ठल का मूर्तिविज्ञान, इस परियोजना की ध्वनि को सुनकर संकलित किए गए महत्त्वपूर्ण सूत्र)
१४. आद्य शंकराचार्यजी द्वारा पंढरपुर को ‘महायोगपीठ’ कहे जाने का कारण
‘तीर्थक्षेत्र एक तो योगपीठ होता है अथवा शक्तिपीठ होता है; परंतु शंकराचार्यजी ने पंढरपुर को ‘महायोगपीठ’ कहा है । भक्त देवता के दर्शन के लिए तीर्थस्थान को अथवा देवी के दर्शन हेतु शक्तिपीठ जाते हैं; परंतु पंढरपुर में पांडुरंग भक्त पुंडलिक की प्रतीक्षा में खडे हैं । यहां परमेश्वर ही भक्त की प्रतीक्षा कर रहे हैं; इसलिए यह महायोगपीठ है । पंढरपुर की श्री विठ्ठल की मूर्ति में सगुण तथा निर्गुण रूपों का उत्कृष्ट संयोग (मीलन) है ।
– श्री. मुकुंद भगवान पुजारी, पंढरपुर
१५. हिन्दू धर्म में वास्तुशास्त्र के अनुसार ३ पीठ
१. भक्तिपीठ
जो स्थान कूर्माकार अर्थात कछुए की पीठ की भांती होता है, वहां भक्तिपीठ बंसा हुआ होता है । इस स्थान में चारों बाजुओं के ढलान होती है । इस पीठ को कूर्मपीठ भी कहा जाता है । जिस प्रकार से कछुआ अपने सभी अंगों को स्वयं के शरीर में छिपाकर रखता है, उसी प्रकार भक्तों को भी अपना अहंकार तथा दोष इत्यादि का संकोच कर लीन भाव से भगवान के दर्शन के लिए आना चाहिए, ऐसा यह दर्शाता है । ऐसे पीठ में केवल भक्त ही नहीं, अपितु दानव भी लीन हो जाते हैं ।
पंढरपुर को भक्तिपीठ कहे जाने के कारण
कोई व्यक्ति चाहे कितना भी नास्तिक क्यों न हो; परंतु पंढरपुर आनेपर वह भक्तिमय बन जाता है; इसीलिए पंढरपुर को भक्तिपीठ कहा जाता है ।
२. गजपीठ
जिस पीठ में ईशान्य दिशा में पानी का प्रवाह तथा संग्रह होता है तथा दक्षिण और नैऋत्य में ऊंचे-ऊंचे पहाड हेते हैं, उसी पीठ को गजपीठ कहा जाता है । इसका उत्तम उदाहरण है तिरुपति बालाजी का पीठ ! इस पीठ को सर्वोत्तम गजपीठ माना जाता है ।
३. शक्तिपीठ
शक्तिपीठ में जिस स्थानपर मंदिर होता है, वहां के ढलान पूर्णरूप से पश्चिम में होती है । ‘शक्तिपीठ’ अधिकांश रूप से देवी से संबंधित होता है । तुळजापुर के श्री भवानी मंदिर तथा कोल्हापुर के श्री महालक्ष्मी के मंदिर की ढलान पश्चिम में है ।
श्री विठ्ठल हैं ईश्वर के ९वें अवतार बौद्धावतार !
पंढरपुर ईश्वर के ९वें अवतार का कलियुग का पीठ है । श्री विठ्ठल श्रीविष्णुजी का अवतार हैं । ईश्वर का ९वां अवतार बौद्धावतार है । बौद्ध का अर्थ है बंधा हुआ । जो भक्त के शब्द से बंधा हुआ है, वह है यह बौद्धावतार !
– श्री. नरसिंह उपाख्य प्रशांत सखाराम पुजारी, पंढरपुर (श्री विठ्ठ के ७ सेवाकर्ताओं में से एक सेवाकर्ता)
१६. श्री विठ्ठलकी प्रतिमासे संबंधित मूर्तिविज्ञान,
प्रतिमाकी कुछ विशेषताएं एवं आध्यात्मिक दृष्टिकोणसे उनका महत्त्व
श्री विठ्ठलकी प्रतिमा स्वयंभू है । यह प्रतिमा वालुका कणों से अर्थात रेत के कणों से बनी है । श्रीविष्णुकी शक्ति के साथ वालुका के अर्थात रेतके कणोंका घनीकरण अर्थात solidification, होने के कारण यह प्रतिमा बनी है । विठ्ठल की कमर के नीचे का भाग ब्रह्मारूपी, कमर के ऊपर गर्दनतक का भाग श्रीविष्णुरूपी एवं मस्तक का भाग शिवरूपी है । श्रीविठ्ठलकी दो शक्तियां हैं, राई एवं रुक्मिणी । राई एवं रुक्मिणी ये दो शक्तियां क्रमानुसार चंद्रनाडी तथा सूर्यनाडी से संबंधित हैं । राईकी उपासनासे चंद्रनाडी जागृत होती है तो रुक्मिणीकी उपासनासे सूर्यनाडी जागृत होती है । चंद्रनाडी उत्पत्तिसे संबंधित है, इससे लयविषयक कार्यको मारक बल प्राप्त होता है ।
अ. प्रतिमाकी छातीपर विराजमान श्रीवत्सलांच्छनात्मक चिह्न
यह चिह्न अनाहतचक्रसे संबंधित है । यह ब्रह्मांड में भावऊर्जात्मक तरंगों का प्रक्षेपण करता है । इन तरंगों के कारण इस प्रतिमा के सान्निध्य में आनेवाले प्रत्येक भक्त की भावजागृति होती ही है ।
आ. श्री विठ्ठलकी प्रतिमामें कमरपर रखे हाथ
श्री विठ्ठलने कमरपर हाथ रखे हैं । इन हाथों की आडी रेखामें श्रीविष्णु की प्रगट शक्ति का एकत्रिकरण हुआ है । यह शक्ति स्थिति से संबंधित है ।
इ. श्री विठ्ठलकी प्रतिमामें हाथमें पकडे शंख
उनके बाएं हाथमें शंख है । यह अप्रकट अनाहतनाद का प्रतीक है । ब्रह्मांड में विद्यमान क्रियाशक्ति सृष्टि के कार्य में सहायक होती है । इस क्रियाशक्ति को सतत गति प्रदान करनेके लिए इस नाद का उपयोग किया जाता है ।
ई. श्री विठ्ठलकी प्रतिमा में हाथों में पकडे कमल
विठोबा के दाएं हाथ में कमलकी कली है । कमल आनंददायी उत्पत्ति का दर्शक है । इस कली में विद्यमान दिव्य सुगंध ब्रह्मांड में विद्यमान ईश्वरीय इच्छाशक्ति को जागृत करती है ।
उ. श्री विठ्ठलकी प्रतिमा के चरण
विठ्ठल की प्रतिमाके चरण पूर्णतः ईंटपर टिके हुए नहीं हैं । यह प्रतिमा केवल पादांगुलियोंपर अर्थात पैरों की उंगलियोंपर टिकी हुई है । चरणों के पीछेकी रिक्ति अर्थात ईंट एवं उठी हुई एडी के बीचकी रिक्ति कार्यरत होने से, विठ्ठलभक्तों को योगाभ्यास के माध्यम से अष्टमहासिद्धियोंकी प्राप्ति होती है ।
ऊ. प्रतिमा के दोनों पैरों के बीचमें विद्यमान लाठी
विठ्ठल के दोनों पैरों के मध्यमें लाठी श्रीकृष्णस्वरूप पूर्णत्वरूपी कार्य का प्रतीक है । यह लाठी शक्ति के माध्यमसे अखिल ब्रह्मांड का समतोल रखती है । इसीलिये यह लाठी सप्तलोक एवं सप्तपाताल का मेरूदंड मानी जाती है । इस लाठी का संबंध सप्तपातालों से है । वह मारक तत्त्व की सहायता से पाताल में विद्यमान कष्टदायी स्पंदनों को नियंत्रित करती है । प्रतिमा के अंतरंगमें आरपार रिक्ति है । इस रिक्तिमें अनंत ब्रह्मांड श्वेत अप्रकट प्रकाश के रूपमें समाया हुआ है । प्रत्यक्षमें विठोबाकी प्रतिमा काले रंग की है; परंतु दिव्य दृष्टि से देखनेपर यह प्रतिमा संपूर्णतः निर्गुण, अर्थात श्वेत रंगकी दिखाई देती है । यह प्रतिमा सूक्ष्म स्तरपर व्यापक रूप में विशाल कार्य करती है । श्री विठ्ठल की प्रतिमा की विशेषताएं एवं मूर्तिविज्ञान आध्यात्मिक दृष्टि से अलौकिक हैं । यही कारण है कि प्राय: सभी भक्तिमार्गी संतोंने इनकी महिमा का वर्णन किया है । श्रीविठ्ठल की प्रतिमाका मूर्तिविज्ञान एवं अध्यात्मशास्त्रीय दृष्टिकोण समझनेसे उनके प्रति श्रद्धामें अवश्य ही वृद्धि हुई होगी । आषाढ एकादशी व्रत का जो भी पालन करते हैं, अथवा करनेकी इच्छा रखते हैं, वे श्रद्धाभाव से यह व्रत कर पाएं तथा हम सब करुणाकर श्री विठ्ठलके कृपापात्र बन पाएं ।