स्वामी वरदानंद भारतीजी का पूर्वाश्रम का नाम अनंत दामोदर आठवले था । उन्होंने वर्ष १९९१ में संन्यास आश्रम स्वीकार किया और स्वामी वरदानंद भारती यह नाम धारण किया । उन्होंने राष्ट्र, धर्म, अध्यात्म आदि विषयों पर विपुल लेखन किया है । श्रावण कृष्ण पक्ष त्रयोदशी को उनकी पुण्यतिथि है । इस अवसर पर साप्ताहिक पंढरी प्रहार के स्वामी वरदानंद भारती विशेषांक में (संपादक : भागवताचार्य श्री. वा.ना. उत्पात, अप्रैल १९९१) आणि हिंदु धर्म समजून घ्या ! (अर्थ : और हिन्दू धर्म समझ लें) स्वस्तिश्री प्रकाशन, पुणे द्वारा प्रकाशित मराठी पुस्तक से विविध विषयों पर चयनित विचार यहां दे रहे है ।
धर्माचरण श्रेष्ठ और कर्तव्य है !
मनुष्य एक प्रश्न सदैव पूछता है, वह व्यक्ति अनुचित आचरण करता है, देवता, धर्म को नहीं मानता, कुलधर्म-कुलाचार का पालन नहीं करता, भ्रष्ट है, तब भी वह सुख से रहता है । हम सब कुछ पालन करते है, फिर हमें दु:ख क्यों ? यह प्रश्न प्राचीन काल से पूछा जा रहा है । महाभारत में द्रौपदी ने धर्मराज से पूछा था, कौरव अधर्म कर रहे है, तब भी सुख उपभोग रहे है; परंतु आप धर्माचरण कर दु:ख भोग रहे है, क्या धर्माचरण का यही फल है ? इस पर धर्मराज ने उत्तर दिया, मैं व्यापार समझकर धर्माचरण नहीं करता । धर्माचरण इष्ट है और वह कर्तव्य है इसलिए करता हूं !
कुछ लोगों का स्वास्थ्य अच्छा होता है । वह कितना भी कुपथ्य करें, तब भी उन्हें कुछ भी नहीं होता, वे स्वस्थ रहते है । कुछ का स्वास्थ्य इतना संवेदनशील होता है कि, उन्हें थोडा-सा भी कुपथ्य हो तो बीमार पड जाते है । क्या तब हम ऐसा कहेंगे ? वैद्यराज यह कैसा अन्याय ? वह इतना अनुचित करता है, तब भी उसका स्वास्थ्य अच्छा है और हम इतना पथ्य पालन करते है, तब भी हमारा स्वास्थ्य ऐसा है । पाप कर चैन से रहनेवाले लोगों के संबंध में यही कह सकते है कि कुछ को पाप का फल तत्काल मिलता है, तो कुछ को उनके पुण्य के कारण प्रतिकारक शक्ति होने से पाप का फल कुछ समय पश्चात भोगना पडता है । बचपन में शरीर को लगी चोट उसी समय कष्ट नहीं देती; परंतु वह वृद्धावस्था में सामने आती है । अधिकतर कुत्ते के काटने के १०-१५ वर्ष पश्चात रोग निर्माण होता है । रेती का पत्थर हथौडे से शीघ्र टूटता है । परंतु काला पत्थर बहुत देर से टूटता है । उसी प्रकार कुछ मनुष्यों के पाप का परिणाम शीघ्र होता है, तो कुछ पर कुछ समय पश्चात परिणाम होता है । न्याय का हथौडा दोनों को ही तोडेगा !
ईश्वर का अस्तित्व : संतों के शब्दों पर विश्वास रखें !
पृथ्वी थाली समान गोल है, यह समझ में आता है; परंतु पृथ्वी गेंद समान गोल है, इसका अनुभव नहीं आता । इतना ही नहीं, तो भवन बनाने हेतु जो नक्शा बनाया जाता है, वह भी पृथ्वी समतल है यह मानकर ही बनाया जाता है । पृथ्वी का पृष्ठभाग वक्र माने, तो कोने (काटकोन) कभी भी सिद्ध नहीं होंगे । पृथ्वी गेंद समान गोल है, यह ज्ञान बडे-बडे अभियंता के भी उपयोग का नहीं है; परंतु वह ज्ञान प्राथमिक पाठशाला में बालक को उसकी आयु के आठवे वर्ष में दिया जाता है । ऐसा क्यों ? अनुभव न होते हुए भी वैज्ञानिकों के कथन पर भरोसा रखकर स्वीकार करना पडता है न ! यदि हमें ईश्वर का अनुभव नहीं है तो जिन्हें अनुभव है, ऐसे संतों पर विश्वास कर ईश्वर है, ऐसा क्यों न माना जाए ?
डार्विन और हिन्दुआें का शास्त्र !
डार्विन का विकासवाद का सिद्धांत बताता है कि, विश्व एक से दूसरे में इस क्रम से विकसित होता गया । वानर से मनुष्य विकसित हुआ । मैं पूछता हूं, जगत में फिर वानर क्यों शेष बचें ? सभी मनुष्य क्यों नहीं बन गए ? हमारा शास्त्र ऐसा मानता है कि, ईश्वर ने यह जगत, उसमें वस्तु, प्राणी एक के उपरांत एक निर्माण किए । इस कारण पहली निर्मिति बनी रहकर दूसरी निर्मिति हुई । तब भी ईश्वर को समाधान नहीं मिला; इसलिए उसने ब्रह्मावलोकधीषण (ब्रह्मा की ओर देखनेवाला, उसे जाननेवाला, कार्य का कारण खोजनेवाला) ऐसा मनुष्य निर्माण किया। तब निर्माता को संतोष हुआ; परंतु जिस उद्देश्य से उसका निर्माण किया, वह ईश्वर का उद्देश्य ही मानव ने साध्य नहीं किया । वह ब्रम्ह की ओर न देखकर, भोगों की ओर ही देखने लगा !
मानव अध:पतन की ओर जा रहा है !
मानव का उत्तरोत्तर विकास हो रहा है, ऐसा कुछ विशेषज्ञ कहते है; परंतु हमारे शास्त्रानुसार मानव का उत्तरोत्तर अध:पतन हो रहा है । सत्ययुग में सभी लोग पुण्यात्मा थे । धर्मानुसार आचरण करते थे । इस कारण राजा नहीं था, कानून नहीं था, दंड नहीं था; परंतु यह नियम है कि जो जैसा है वह वैसा सृष्टि में नहीं रहता । सत्ययुग में सर्व उपलब्ध था, खूब संपन्नता थी, उस पर नियंत्रण नही रहा । शरीर मोटा हो गया, विकृतियां निर्माण हुई, थकान हुई, आलस्य निर्माण हुआ, इस कारण संग्रह करने लगे, उससे लोभ निर्माण हुआ, उसमें से अन्य विकृतियां निर्माण हुई और मनुष्य अध:पतन की ओर गया । एक रोग से दूसरा रोग निर्माण होता है, वैसे ही एक विकृति से दूसरी विकृति निर्माण हुई । तब से मानव का उत्तरोत्तर अध:पतन हो रहा है, यह कटुसत्य है ।
स्वातंत्रता के पश्चात भी अंग्रेजों के दास बने रहनेवाले भारतीय !
स्वतंत्रता से पूर्व हम जितने अंग्रेजों के दास थे, उससे कई गुना अधिक आज हम अंग्रेजों के दास है । हमारी सभ्यता यह अंग्रेजी सभ्यता है । हमारी विचारधारा ही अंग्रेजी विचारधारा है । हमारी निर्णय करने की पद्धति अंग्रेजी पद्धति है ।
हिन्दुआें में आवश्यकता से अधिक ठंडापन !
हम आवश्यकता से अधिक ठंडे है । इस ठंडेपन का क्रोध आए इतने हम थंडे है; परंतु हस्ती मिटती नहीं हमारी इसलिए हम आशावादी रह सकते है । एक गोली ले कर हम खडे रह सकते है । कार्यक्षम हो सकते है; परंतु यह बीमारी भी हमें क्यों आती है, इसका एक बार तो निराकरण होना चाहिए ! व्यक्ति बीमार होता है, यह तो समझ में आता है; परंतु वह रोग संस्कृति को क्यों आए ? धर्म को क्यों आए ?
धर्म न मानने से क्या होता है ?
धर्म होगा, तो ही राष्ट्र्र में सुख, शांति होती है । संघर्षरहित, शांत और स्थिर जीवन हेतु धर्म आवश्यक है । धर्म यह आचरण का विषय है । बाह्य बातों से धर्म निर्धारित नहीं होता । लोग कहते है कि धर्म न मानने से क्या होता है ? स्वास्थ्य के नियम न मानने पर जो शरीर का होता है; वह धर्म न मानने पर समाज का होता है । स्वास्थ्य के नियम न मानने पर शरीर में रोग निर्माण होते है । धर्म न मानने पर समाज में भ्रष्टाचार, अनैतिकता, अपराध इत्यादि रोग निर्माण होते है ।
पश्चिमी शिक्षा पद्धति के कारण हुई हानि !
शिक्षा में परिवर्तन होना चाहिए, ऐसा सभी कहते है; परंतु ११वीं, १२वीं को महाविद्यालय से जोडा जाए या विद्यालय से, केवल इतना ही परिवर्तन होता है । हमें समृद्ध ऐसी पारंपरिक शिक्षा विरासत में मिली है; परंतु वह हम नहीं अपनाते । मोहरे गडे स्थान पर बैठकर भीख मांगनेवाले जैसे हम अभागी है । प्राचीन शिक्षा पद्धति ने सुश्रुत जैसे शल्यचिकित्सक निर्माण किए । मीनाक्षी मंदिर, आबू इस पर्वत पर भीलवाडा मंदिर बनाने वालेे विशेषज्ञ निर्माण हुए है । अत्यंत नरम, कोमल मलमल का कपडा बनानेवाले बुनकर निर्माण हुए है । उस शिक्षापद्धति का अंतर्मुख होकर हम विचार करेंगे या नहीं ? अब एक इंजीनियर अथवा डॉक्टर तैयार करने में सरकार को लाखों रूपये खर्च आता है । पहले यही शिक्षा परंपरागत पद्धति से बिना शुल्क के मिलती थी; परंतु पाश्चात्य शिक्षा पद्धति के कारण हमने अपनी अच्छी शिक्षा पद्धति नष्ट की । आधुनिक शिक्षा प्राप्त क्या किसी एक भी विद्यार्थी ने मीनाक्षी मंदिर जैसा मंदिर बनाया है ? ऐसा प्रत्येक शास्त्र के विषय में हम कह सकते है; इसलिए प्राचीन शिक्षा पद्धति पर आधारित शिक्षा व्यवस्था निर्माण की जानी चाहिए ।
संस्कृत में ताला शब्द हेतु समानार्थी शब्द नहीं !
प्राचीन काल में इस देश में लोग अत्यधिक प्रामाणिक थे । चीन से आए यात्रियों ने लिखा है कि, लोग घर में ताले नहीं लगाते थे, चोरी नहीं होती थी, रघुराजा की नगरी पर कुबेर ने स्वर्णमुद्राआें की वर्षा की, तब किसी ने एक सिक्का भी नहीं उठाया । अनेक लक्ष शब्दोंवाली संस्कृत भाषा में ताले के लिए शब्द नहीं है । तात्पर्य यह कि चोरी नहीं होती थी, इसलिए ताला संस्कृति नहीं थी । संस्कृति के सर्वोच्चता की और क्या साक्ष्य चाहिए ?
रामराज्य क्यों चाहिए ?
रामराज्य में जनता के मत का जो मूल्य था, क्या वह लोकतंत्र में है ? एक सामान्य धोबी (रजक) की बात पर भगवान श्रीराम ने प्राण से भी प्रिय पत्नी का त्याग किया; परंतु वर्तमान लोकतंत्र में भ्रष्टाचार संबंधी आयोग नियुक्त कर भ्रष्टाचार सिद्ध हो गया, तब भी नेता कुर्सी का त्याग नहीं करते । यही रामराज्य और लोकतंत्र में अंतर है ।
ईश्वर की साक्ष्य मांगनेवाले पहले विज्ञान के साक्ष्य दें !
ईश्वर के साक्ष्य मांगते हो ? तो विज्ञान के भी साक्ष्य दें । यदि गुरूत्वाकर्षण है, तो वृक्ष ऊपर क्यों बढता है ? उष्णता से प्रसरण होता है, ठंडी से संकुचित होता है, तब शून्य तापमान से नीचे प्राणी प्रसरण कैसे पाते है ? गणित के ऋण (-)+ ऋण (-) = धन (+) कैसे होता है ? यदि बिंदुकी लंबाई, चौडाई, उंचाई, मोटाई नहीं है, तो कागद पर कैसे बनाया जाता है ? यह सभी वैज्ञानिक बताते है; इसलिए हम उस पर विश्वास करते है, तब ईश्वर के विषय में संत, आचार्य जो बताते है उस पर विश्वास रखें तो क्या बिगडता है ?
– स्वामी वरदानंद भारती
यह राष्ट्र हिन्दू राष्ट्र ही था और है !
धर्म और राष्ट्र पृथक नहीं है । हमारे सभी धर्मपुरुष राष्ट्रपुरुष है और राष्ट्रपुरुष भी धर्म पालनकर्ता है । देवता के पैर धोते समय भी इस राष्ट्र को बल प्राप्त हों, ऐसा मंत्रोच्चार हम करते है । मंत्रपुष्पांजली में भी हम समुद्र तक एक राष्ट्र्र हों, यही प्रार्थना करते है । धर्म के सभी मंत्र राष्ट्र्रकल्याण हेतु है । धर्म और राष्ट्र पहले भी कभी पृथक नहीं थे, आज भी नहीं है । केवल राज्यसत्ता पृथक हो सकती है । राज्यसत्ता और राष्ट्र पृथक है । राज्यसत्ता कभी मुसलमान थी, कभी ईसाई थी; परंतु यह राष्ट्र केवल हिन्दू राष्ट्र ही था और है ।
– स्वामी वरदानंद भारती
ऐसे अनमोल विचार देनेवाले स्वामी वरदानंद भारतीजी को शतशः प्रणाम !