परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की जीवन यात्रा देखें तो उनकी प्रत्येक कृति आदर्श है, यह पग-पग पर दिखाई देता है । साधक भी वैसे ही तैयार होें, वह सेवा की बारीकियों का अध्ययन कर प्रत्येक कृति ईश्वर को अपेक्षित ऐसी परिपूर्ण करें, ऐसी उनकी लगन है । उसके कारण केवल शाब्दिक मार्गदर्शन न करके साधकों को प्रत्यक्ष कृति से सिखाना, यह उनकी अलौकिक विशेषता का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है ! वनस्पतियों का रोपण, धर्मजागृति सभा के मैदान में की जानेवाली तैयारी, कला की सेवा हो या संगीत-नृत्य, सभी क्षेत्र में उनका ‘प्रभुत्व’ उनका अवतारत्व सिद्ध करता है !
कई बार गुरु अर्थात आसन पर बैठकर मार्गदर्शन करनेवाले, ऐसा चित्र हमारे सामने आता है । (परात्पर गुरु) डॉ. आठवलेजी साधकों के साथ प्रत्येक सेवा में सहभागी होकर उसके माध्यम से ईश्वर प्राप्ति हेतु मार्गदर्शन करते हैं, इसलिए सनातन के साधक अत्यंत भाग्यवान हैं । ‘पेड-पौधों से फूल कैसे तोडें, ‘झाडू लगाते समय द्वार के पायदान मोड कर एक ओर रखें’, इस प्रकार श्रीगुरु ने प्रत्यक्ष कृति से सिखाए हुए अनेक प्रसंग साधकों के मनमंदिर में संग्रहित हैं । उनमें से कुछ चयनित प्रसंग हमारे पाठकों हेतु प्रस्तुत हैं । श्रीगुरु की इस अनमोल सीख हेतु कोटि कोटि कृतज्ञता !