गणित
प्रमेय :
आज जिन्हें आज हम ‘पायथागोरस के प्रमेय’ कहते हैं, वे सबसे पहले बोधायन ऋषि द्वारा अवगत कराए गए थेे ।
शून्य तथा बाईनरी प्रणाली :
शून्य, बाईनरी शून्य और बाईनरी प्रणाली तो आर्यभट्ट का ही अविष्कार था । नासा के वैज्ञानिक डॉ. ब्रिग्स का कहना है, ‘‘हमें इसे नहीं भूलना चाहिए कि गणित में निहित शून्य भी भारतीय विचारकों की ही देन है तथा आज जिसका संगणक में उपयोग किया जाता है, वह बाईनरी प्रणाली भी भारत का ही अविष्कार है ।
गणित के स्थानीय मूल्य (value system) तथा दशांश अपूर्णांक पद्धति :
ईसापूर्व १०० में भारत द्वारा गणित के स्थानीय मूूल्य (value system) तथा दशांत अपूर्णांक पद्धति विकसित की गई थी । इसीलिए विश्व के महान भौतिकीय वैज्ञानिक अल्बर्ट आइनस्टाईन ने कहा था, ‘‘हम भारतीयों के ऋणी हैं; क्योंकि उन्होंने ही हमें गणना सिखाई और उसके बिना कोई भी महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक अविष्कार किया ही नहीं जा सकता ।’’
त्रिकोणमिती (ट्रिग्नोमेट्री) तथा बीजगणित (अल्जेब्रा) :
गणित के त्रिकोणमिती (ट्रिग्नोमेट्री) और बीजगणित (अल्जेब्रा) तो संसार के लिए भारत की ही देन हैं । न्यूटन से कई वर्ष पहले १४ वीं शताब्दी में केरल के विद्वान तथा गणितियों ने ‘कैल्क्युलस’ का अविष्कार किया था ।
वर्ग समीकरण को छुडाने का नियम :
११वीं शताब्दी में श्रीधराचार्य ने बीजगणित में अनेक महत्त्वपूर्ण अविष्कारों की खोज की । वर्ग समीकरण (Quadratic Equations) सुलझाने के नियम आज भी ‘श्रीधर नियम’ अथवा ‘हिन्दू नियम’ से प्रचलित है । उनके ग्रंथों में अंकगणित तथा क्षेत्रफल का विशेष विवरण है ।
श्रीनिवास रामानुजम् भारत के विश्वविख्यात गणितज्ञ थे । उनके द्वारा बनाए गए गणित के एक-एक उदाहरण को सुलझाने के लिए संसार के बडे-बडे गणितज्ञों को कई वर्ष लग गए ।
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
अणु संकल्पना :
महर्षि कणाद ने आधुनिक वैज्ञानिक डाल्टन के सहस्रों वर्ष पूर्व अणु की संकल्पना तथा वैषेयिक दर्शन का अविष्कार किया था ।
विमानविद्या :
भारद्वाज ऋषि वैदिककालीन विमानविद्या के प्रणेता हैं । उनके ‘वैमानिक प्रकरणम्’ ग्रंथ में विमाविद्या की विस्तृत जानकारी मिलती है । आज के प्राचीन हस्तलिखित लिपी के अनुसंधानकर्ता तथा पुरालेखवेत्ता श्री. गणेश नेर्लेकर-देसाई की यह ध्यान में आया कि भारद्वाज ऋषि के इस ग्रंथ के आधारपर राईट बंधुआें से १० वर्ष पहले मुंबई के श्री. शिवकर तळपदे ने पहला विमान उडाया था ।
गुरुत्वाकर्षण का अविष्कार :
भास्कराचार्य ने न्यूटन से पहले गुरुत्त्वाकर्षण के नियम का शोध किया था ।
अणुशक्ति :
डॉ. होमी भाभा ने अणुशक्ति के क्षेत्र में कई महत्त्वपूर्ण अविष्कार किए ।
ताररहित संदेश :
अमेरिका के IEEE नामक संगठन ने एक शतक पुरानी अपनी शंका को दूर करते हुए यह प्रमाणित किया कि ताररहित (वाईरलेस) संचार के अविष्कारकर्ता मारकोनी नहीं, अपितु प्राध्यापक जगदीशचंद्र बोस थे । इसलिए आकाशवाणी, दूरदर्शन, भ्रमणभाष आदि के अविष्कार के मूल भी जगदीशचंद्र बोस ही हैं । बोस भौतिकी, जीव, वनस्पति, साथ ही पुरातत्त्व विज्ञान के विशेषज्ञ तथा क्रेस्कोग्राफ के सबसे पहले अनुसंधानकर्ता थे । आकाशवाणी एवं सूक्ष्म तरंगों के प्रकाशिकी के संदर्भ में कार्य करनेवाले वे पहले वैज्ञानिक थे ।
भाषा एवं खगोलशास्त्र :
लैटिन भाषा द्वारा संस्कृत भाषा को सभी यूरोपियन भाषाआें की जननी माना जाता है । वर्ष १९८७ में छापे गए मासिक के अनुसार संगणक के लिए संस्कृत भाषा को सबसे उपयुक्त भाषा मानी जाती है । आज के खगोलीय वैज्ञानिकों के उदय के सैकडों वर्ष पहले ५ वें शतक में भास्कराचार्य ने सौरवर्ष ३६५.२५८७५६८४ दिन का होने का शोध किया था ।
आयुर्वेद एवं शल्यचिकित्सा
मनुष्य को ज्ञात जानकारी के अनुसार आयुर्वेद सबसे प्राचीन चिकित्साप्रणाली है, जो स्वयं भगवान धन्वंतरी की देन है । आचार्य चरक आयुर्वेद के महान चिकित्सक और ‘चरकसंहिता’ के रचनाकार भी थे ।
महर्षि सुश्रुत शल्यचिकित्सा के जनक (Father of Surgery) थे । आज से २६०० वर्ष पहले महर्षि सुश्रुत तथा भारत के अनेक स्वास्थ्य वैज्ञानिकों ने प्रसव, मोतियाबिंद, अस्थिभंग, पथरी आदि की शल्यचिकित्सा की थी ।
विश्व का पहला विश्वविद्यालय तक्षशिला
विश्व का सबसे पहला विश्वविद्यालय तक्षशिला ईसापूर्व ७०० में भारत में स्थापित हुआ था । उसमें संपूर्ण विश्व के १०,५०० से भी अधिक छात्र ६० से भी अधिक विषयों की शिक्षा ले रहे थे । ५ वीं शताब्दी में हूणों ने भारत पर विध्वंसकारी आक्रमण किया । उसमें तक्षशिला नगरी ध्वस्त हो गई ।
शिक्षा क्षेत्र में प्राचीन भारत की सबसे उच्च उपलब्धि नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना ५ वीं शताब्दी में बिहार में हुई थी । १२ वीं शताब्दी में तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने इस विश्वविद्यालय को जलाकर नष्ट कर दिया ।
इन दोनों विश्वविद्यालयों का विनाश, साथ ही शिक्षा के ज्ञानमंदिर, मठ तथा गुरुकुलों का विनाश तो खगोलीय, विज्ञान, गणित, रसायनविद्या, शरीररचना आदि विज्ञान के क्षेत्रों में भारत द्वारा किए गए महान अनुसंधान को नष्ट करने के उद्देश्य से ही किया गया था ।
योग एवं अध्यात्म के क्षेत्र में विश्व में सदैव अग्रणी भारत !
- पूरे विश्व के उद्धार के लिए सक्षम वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण, श्रीमद्भागवत, श्रीमद्भगवद्गीता आदि सद्ग्रंथ भारत के ही संत-महापुरुषों की देन हैं ।
- विश्वभर के मनुष्यों का सबसे बडा संगठन भारत में कुंभमेले के रूप में भारत में ही आयोजित किया जाता है ।
- अनादिकाल से संपूर्ण विश्व भारत के अध्यात्म तथा योगविद्या की सहायता से शांति एवं आनंद प्राप्त कर रहा है । इसके साथ ही स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ, परमहंस योगानंद, स्वामी राम, साई श्री लीलाशाहजी महाराज जैसे ब्रह्मज्ञानी संतों ने विदेश जाकर वहां के असंख्य लोगों को भारत के महान दर्शनशास्त्रों के विषय में अवगत कराया तथा आध्यात्मिकता, ध्यानयोग, शाकाहार इत्यादि का महत्त्व विशद कर उन्होंने लोगों के दृष्टिकोण में परिवर्तन लाया ।
औद्योगिक, खेल तथा अन्य
- ५००० वर्ष पहले सिंध प्रांत में नौकानयन/नौकायन (Navigation) शास्त्र का जन्म हुआ था । अंग्रेजी शब्द ‘नेवीगेशन’ संस्कृत शब्द नवगतिः से बना है ।
- जमोलॉजिकल इन्स्टिट्यूट ऑफ अमेरिका के अनुसार वर्ष १८९६ में विश्व को हीरों की आपूर्ति करनेवाला भारत ही एकमात्र देश था ।
- विश्व में जलआपूर्ति के लिए सबसे पहला जलाशय और बांध का निर्माण सौराष्ट्र में किया गया था ।
- विश्वविख्यात बौद्धिक खेल शतरंज का अविष्कार भारत में ही हुआ था ।
मेकॉलेप्रणीत शिक्षापद्धति के कारण भारतीय अपने गौरवशाली इतिहास के विषय में अनभिज्ञ !
उपर्युक्त तथ्य भारतीय संस्कृति के महान इतिहास की केवल एक झलक हैं । भारतीय संस्कृति इतनी गौरवशाली है कि उसे जान लेनेपर अपना आत्मविश्वास इतना दृढ होता है कि हम उन महापुरुषों की संतान हैं, जिन्होंने विश्व को सजाया-संवारा हैं । हम भी सब कुछ कर सकते हैं; परंतु दुर्भाग्य की बात यह कि आज विद्यालय-महाविद्यालयों में मेकॉलेप्रणीत शिक्षाप्रणाली के अनुसार सिखाए जानेवाले झूठे इतिहास में भारत के इन अविष्कारों की उपेक्षा की गई है । भारतीयों को जानबूझकर भारतीय संस्कृति तथा संतों की महिमा से अज्ञात रखा गया है ।
ब्रह्मज्ञानी संत भारतीय संस्कृति की महिमा को प्रकट करेंगे !
जबतक इस भारतभूमि पर ब्रह्मज्ञानी संतों का अवतरण होता रहेगा, तब तक भारत तथा उसकी संस्कृति की महिमा पुनःपुन प्रकट होती रहेगी । इसका प्रत्यक्षरूप से प्रमाण यह है कि लाखों हिन्दू, जो लोभवश अथवा विदेशी चमक-दमक से प्रभावित होकर भारतीय संस्कृति से दूर जा रहे थे, अब वे पुनः सहयोग, उपदेश तथा दीक्षा से स्वस्थ सहायक, स्नेही और सुखमय जीवन की ओर अग्रसर हो रहे हैं ।
(संदर्भ : मासिक लोककल्याण सेतु, मई २०१४)
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