साधना के लिए लकडी का आसन वर्ज्य होने का कारण
साधना के लिए इमली, जामुन आदि कुछ वृक्षों की लकडी अयोग्य मानी गई है । ऐसे वृक्षों के नामों की सूची देने की अपेक्षा कुछ ग्रंथों मेें लकडी के आसन वर्ज्य करने के लिए कहा है । यह ग्रंथलेखन की एक पद्धति है; क्योंकि अन्य ग्रंथों मेें पलाश, बकुल आदि वृक्षों की लकडी आसन के लिए योग्य बताई है । लकडी के आसन वर्ज्य करने के पीछे वृक्षों का र्हास न हो; यह भी एक कारण हो सकता है ।
– पू. गणेशनाथजी उपाख्य डॉ. दीपक जोशी, पूना द्वारा लिखित (१३.८.२०१६)
१. साधना करते समय उत्पन्न होनेवाली ऊर्जा भूमि
में प्रवाहित न होकर संग्रहित करनेवाला आसन होना चाहिए !
साधना करते समय हमारे अंत:करण से उच्च दिव्य तरंगे निकलती हैं । साधक भूमि पर बैठकर साधना करे तो ऊर्जा भूमि में प्रवेश करती है जिससे अर्जित की गई उर्जा अधिक मात्रा में व्यय हो जाती है । लकडी में ऊर्जा प्रवाहित नहीं हो सकती तथा संग्रहित भी नहीं रह सकती, इसलिए लकडी का आसन वर्ज्य कहा गया है ।
२. ढीले वस्त्र, पत्थर अथवा ऊबड खाबड स्थान,
भूमि तथा लकडी के आसन पर बैठकर साधना नहीं करनी चाहिए !
भगवान शिव ने माता उमा को गुरुगीता में स्पष्ट बताया है –
वस्त्रासने च दारिद्य्रं पाषाणे रोगसम्भवः ।
मेदिन्यां दुःखमाप्नोति काष्ठे भवति निष्फलम् ॥ – गुरुगीता, श्लोक २२०
अर्थ : ढीले वस्त्रासन पर बैठने से दरिद्रता आती है, तथा ध्यान ठीक से नहीं लगता । पत्थर अथवा पथरीले स्थान पर बैठकर साधना करने से रोग होते हैं । भूमि पर बैठकर की गई साधना दुःखदायी होती है । लकडी के आसन पर बैठकर की गई साधना व्यर्थ (निष्फल) होती है ।
३. साधना के लिए एक निश्चित स्थान पर, कुशासन
पर अथवा एक स्वच्छ गुदडी की तीन-चार घडी बनाकर उस पर बैठना चाहिए !
माता उमा ने ध्यान-धारणा करते समय योग्य आसन कौन सा ? यह प्रश्न पूछने पर भगवान शिवजी कहते हैं; ‘निश्चित स्थान पर दर्भासन पर बैठकर साधना करनी चाहिए अथवा स्वच्छ गुदडी की घडी बनाकर उस पर बैठना चाहिए ।’
कुशासने ज्ञानसिद्धिः सर्वसिद्धिस्तु कम्बले । कुशैर्वा दूर्वया देवि आसने शुभकम्बले ।
उपविश्य ततो देवि जपेदेकाग्रमानसः ॥ – गुरुगीता, श्लोक २२१ आणि २२२
अर्थ : दर्भासन पर बैठकर साधना करने से ज्ञानसिद्धि मिलती है । कंबल पर बैठकर साधना करने से सिद्धि प्राप्त होती है । इसलिए हे देवी (पार्वती), दर्भ, दूब अथवा अच्छा कंबल इनमें से किसी एक आसन पर बैठकर एकाग्रता से जप करना चाहिए ।
उपरोक्त प्रकार के आसन पर बैठकर साधना करने से उत्पन्न होनेवाली ऊर्जा कुछ मात्रा में आसन में संग्रहित रहती है । अन्य आसन के समान भूमि में प्रवाहित नहीं होती । इस संग्रहित ऊर्जा (शक्ति) का साधक को लाभ होता है । इसलिए प्रत्येक का आसन अलग होना चाहिए । एक दूसरे के आसन का उपयोग करना उचित नहीं है ।
– वेदमूर्ति केतन शहाणे, अध्यापक, सनातन साधक-पुरोहित पाठशाळा, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (१३.८.२०१६)
साधक में शुचिता तथा भाव होने पर आसन का महत्व घट जाता है !
साधना करते समय साधक में शुचिता (पवित्रता) और भाव का महत्त्व अधिक है । उपरोक्त घटकों से साधक परिपूर्ण हो तो किसी भी आसन पर बैठकर की हुई साधना समान फलदायी होती है; साधक में मूलभूत घटक न होने पर आसन कितना भी अच्छा क्यों न हो; कोई लाभ नहीं होगा।
– डॉ. मोहन केशव फडके, मंत्र-उपचार विशेषज्ञ, पुणे द्वारा दी गई जानकारी (१३.८.२०१६)