अखंड भारत के कोने-कोने में शिक्षा के असंख्य केंद्र थे । छोटे-छोटे विद्याकेंद्रों की तो गिनती ही नहीं थी; क्योंकि वे इतनी बडी संख्या में थे । इनमें से अधिकांश विद्याकेंद्र आसुरी वृत्ति के तत्कालीन मुसलमान आक्रमकों ने ढहा दिए । ज्ञानकेंद्रों की इस असीम हानि का दुष्परिणाम हम आज भी पग-पग पर भोग रहे हैं । प्राचीन भारत इस शिक्षण क्षेत्र में अग्रसर था । भारतीय शिक्षा पद्धति जगत मान्य थी । आज के समान युवी पीढी तब उच्च शिक्षा के लिए विदेश में नहीं जाती थी । इसके विपरीत विदेश से असंख्य जिज्ञासु ज्ञानार्जन करने के लिए भारतीय विद्यापीठों में आते थे । इस विषय पर गौरवशाली इतिहास के सुनहरे क्षण प्रस्तुत लेख द्वारा समझ लेते हैं ।
१. तक्षशिला विद्यापीठ
‘तक्षशिला’ को जगत का प्रथम विश्वविद्यालय (विद्यापीठ) माना जाता है । आज के पाकिस्तान में (रावलपिंडी से १८ मील उत्तर की ओर) स्थित यह विद्यापीठ इसवी सन के ७०० वर्ष पूर्व स्थापित किया गया है । आगे इसवी सन ४५५ में पूर्व यूरोप के आक्रमणकारियों ने अर्थात हुणों ने उसे नष्ट कर दिया । जागतिक स्तर पर विख्यात इस विद्यापीठ ने लगभग १२०० वर्ष ज्ञानदान का प्रचंड कार्य किया । श्रेष्ठ आचार्यों की परंपरा निर्माण की । अनेक जगप्रसिद्ध विद्यार्थी दिए । तक्षशिला विद्यापीठ बंद होने के कुछ वर्षों में ही मगध राज्य में (आज के बिहार में) नालंदा विद्यापीठ की स्थापना हुई । ये दोनों ही नामांकित विद्यापीठ एक ही समय में कभी भी कार्यरत नहीं थे ।
ऐसा कहते हैं कि तक्षशिला नगरी की स्थापना राजा भरत ने अपने बेटे अर्थात तक्ष के नाम पर की । आगे यहीं पर विद्यापीठ स्थापित हो गया । जातक कथाआें में तक्षशिला विद्यापीठ के विषय में बहुत जानकारी मिलती है । इन कथाआें में १०५ स्थानों पर तक्षशिला विद्यापीठ का संदर्भ मिलता है । उस काल में अर्थात लगभग १ सहस्र वर्ष तक्षशिला संपूर्ण भरतखंड की बौद्धिक राजधानी थी । उसकी यह ख्याति सुनकर ही चाणक्य समान व्यक्ति मगध (बिहार) से इतनी दूर तक्षशिला आए । बौद्ध ग्रंथ ‘सुसीमजातक’ और तेलपत्त’ में तक्षशिला का अंतर काशी से २ सहस्र कोस बताया है ।
१ अ. तक्षशिला विद्यापीठ के चिकित्सा शास्त्र के प्रगत केंद्र !
इसवीं सन के ५०० वर्ष पूर्व, जब चिकित्सा शास्त्र का नाम भी जगत में कहीं नहीं था, तब तक्षशिला विद्यापीठ चिकित्सा शास्त्र का बहुत बडा केंद्र माना जाता था । यहां ६० से अधिक विषय एक ही समय पर सिखाए जाते थे । इसके अतिरिक्त यहां १० सहस्र ५०० विद्यार्थियों के पढने की सुविधा थी ।
१ आ. तक्षशिला विद्यापीठ के विद्यार्थियों की उज्जवल परंपरा
१ आ १. इस विद्यापीठ की स्थापना के उपरांत अर्थात इसवी पूर्व ७०० वर्ष, यहां सीखनेवाले पहले जगप्रसिद्ध विद्यार्थी थे पाणिनी ! उन्होंने ही आगे संस्कृत भाषा का व्याकरण तैयार किया !
१ आ २. इसवी सन से पूर्व छठी शताब्दी में चिकित्सा शास्त्र सीखे हुए जीवक (अथवा जिबाका), आगे मगध राजवंश के राजवैद्य बने । उन्होंने अनेक ग्रंथ लिखे ।
१ आ ३. इसवी सन पूर्वी चौथी शताब्दी में अर्थशास्त्र के विद्यार्थी चाणक्य आगे ‘कौटिल्य’ नाम से प्रसिद्ध हुए ।
१ इ. बढते आक्रमणों के कारण आचार्यों ने विद्यापीठ छोड दिया !
चीनी यात्री और विद्यार्थी फाह्यान’ वर्ष ४०५ में तक्षशिला विद्यापीठ में आए । पश्चिम से होनेवाले आक्रमणों की संख्या में वृद्धि हो चुकी थी । अनेक आचार्य विद्यापीठ छोडकर जा चुके थे । इसलिए फाह्यान को वहां अधिक ज्ञान लाभ नहीं हुआ । उन्होंने ऐसा लिख कर रखा है । आगे ७ वीं शताब्दी में तक्षशिला विद्यापीठ की महिमा सुनकर और एक चीनी यात्री युवान च्वांड वहां गया । उस समय उसे विद्याभ्यास की कोई पहचान नहीं मिली ।
२. अनेक दुर्लभ ग्रंथों का प्रचंड संग्रहवाला नालंदा विद्यापीठ !
हूण आक्रमणकारियों ने जिस काल में तक्षशिला विद्यापीठ उद्ध्वस्त किया, लगभग उसी काल में मगध साम्राज्य में नालंदा विद्यापीठ की स्थापना की जा रही थी । मगध के महाराज शकादित्य (अर्थात गुप्त वंशीय सम्राट कुमार गुप्त : वर्ष ४१५ से ४५५) ने अपने अल्पकाल में नालंदा को विद्यापीठ के रूप में विकसित किया । इस विद्यापीठ का आरंभिक नाम था ‘नलविहार’ । नालंदा विद्यापीठ अनेक भवनोेंं का एक बहुत बडा संकुल था । इसमें प्रमुख भवन थे – रत्नसागर, रत्नोदधी और रत्नरंजक ! ‘मान मंदिर’ सबसे ऊंचा प्रशासकीय भवन था । आगे इसवी सन ११९७ में बख्तियार खिलजी ने यह विद्यापीठ जला डाला । इससे पहले तक लगभग ७०० वर्ष नालंदा विद्यापीठ जगत का सर्वोकृष्ट विद्यापीठ था ।
इस विद्यापीठ में प्रवेश के लिए कठोर परीक्षा देनी पडती थी । चीनी यात्री ह्युएन त्सांग यहां १० वर्ष तक अध्ययन कर रहे थे । उनके गुरु शीलभद्र असम के थे । ह्युएन त्सांग ने इस विद्यापीठ की प्रशंसा में विपुल लेखन कार्य किया है ।
३. विक्रमशील विद्यापीठ, बिहार
८ वीं शताब्दी में बंगाल के पाल वंशीय राजा धर्मपाल ने इस विद्यापीठ की स्थापना आज के बिहार में की थी । इस विद्यापीठ के अंतर्गत ६ विद्यालय थे । प्रत्येक विद्यालय में १०८ शिक्षक थे । १० वीं शताब्दी में प्रसिद्ध तिब्बती लेखक तारानाथ ने इस विद्यापीठ का विस्तृत वर्णन किया है । इस विद्यापीठ के प्रत्येक द्वार पर एक-एक प्रमुख आचार्य नियुक्त थे । जो नए प्रवेश लेनेवाले विद्यार्थियों की परीक्षा लेते थे । उनकी परीक्षा में उत्तीर्ण विद्यार्थियों को ही विद्यापीठ में प्रवेश मिलता था । ये आचार्य थे – पूर्व द्वार के पं. रत्नाकर शास्त्री, पश्चिम द्वार के वर्गाश्वर कीर्ती, उत्तर द्वार के नारोपंत और दक्षिण द्वार के प्रज्ञाकर मित्रा । इनमें नारोपंत महाराष्ट्र से आए थे । आचार्य दीपक विक्रमशील विद्यापीठ के सर्वाधिक प्रसिद्ध आचार्य हुए हैं ।१२ वीं शताब्दी में यहां ३ सहस्र विद्यार्थी अध्ययनरत थे । पूर्व में और दक्षिण में मुसलमान आक्रमणकारी पहुंच रहे थे और उनकी दृष्टि जिस ज्ञान के साधन और स्थान पर पडती, वह उन्हें उद्ध्वस्त कर रहे थे । उत्खनन में जो अवशेष मिले हैं, उससे यह ध्यान में आता है कि इस विद्यापीठ के बडे सभागृह में लगभग ८ सहस्र लोगों के बैठने की व्यवस्था थी ! इस विद्यापीठ में विदेशी विद्यार्थियों में तिब्बती विद्यार्थियों की संख्या सर्वाधिक थी । इसका एक कारण यह था कि यह बौद्ध धर्म के ‘वज्रयान’ संप्रदाय के अध्ययन का महत्त्वपूर्ण और अधिकृत केंद्र था ।नालंदा विद्यापीठ नष्ट होने के उपरांत लगभग ६ वर्षों में अर्थात १२०३ में नालंदा जलानेवाले बख्तियार खिलजी ने यह विद्यापीठ भी जला डाला !
४. उड्डयंतपुर विद्यापीठ, बिहार
पाल वंश की स्थापना करनेवाले राजा गोपाल ने उड्डयंतपुर विद्यापीठ की स्थापना बौद्ध विहार के रूप में की थी । उसके विशाल भवन को देखकर बख्तियार खिलजी को लगा कि यह कोई किला ही है । इसलिए उसने उस पर आक्रमण कर दिया । समय पर सैनिकी सहायता नहीं मिल पाई । इसलिए केवल विद्यार्थी और आचार्यों ने ही उसका जोरदार सामना किया; परंतु सब के सब मारे गए ।
५. सुलोटगी विद्यापीठ, कर्नाटक
कर्नाटक के बीजापुर जिले में यह महत्त्वपूर्ण विद्यापीठ ११ वीं शताब्दी के अंत में बना था । राष्ट्र्कुटों का शासन होते हुए कृष्ण (तृतीय) राजा के मंत्री नारायण ने सुलोटगी विद्यापीठ का निर्माण किया था; परंतु विद्यापीठ के रूप में कुछ कार्य होने के पूर्व ही उसर मुसलमानी आक्रमकों ने आक्रमण कर उसे उद्ध्वस्त कर दिया ।यहां पविट्टागे नामक संस्कृत महाविद्यालय अल्पावधि में ही संस्कृत शिक्षा के लिए चर्चा में आया था । देशभर से चयनित २०० विद्यार्थियों को भोजन और निवास के साथ शिक्षा देनेवाला यह विशेषतापूर्ण विद्यापीठ था ।
६. सोमपुर महाविहार, बांग्लादेश
बांग्लादेश के नौगांव जिले में बादलगाजी तालुका के पहाडपुर गांव में महाविहार के रूप में स्थापित हुए सोमपुर महाविहार शैक्षणिक केंद्र आगे विद्यापीठ के रूप में स्थापित हुआ । पाल वंश के दूसरे राजा धर्मपाल देव ने ८ वीं शताब्दी के अंत में इस महाविहार का निर्माण किया । इसकी रचना ऐसी थी जिससे इसे जगत के सबसे बडा बौद्ध विहार कहा जा सकता था । चीन, तिब्बत, मलेशिया, जावा और सुमात्रा के विद्यार्थी यहां पढने आते थे । १० वीं शताब्दी में प्रसिद्ध विद्वान अतीश दिपशंकर श्रीज्ञान इसी विद्यापीठ के आचार्य थे ।
७. रत्नागिरी विद्यापीठ, ओडिशा
छठी शताब्दी में बौद्ध विहार के रूप में स्थापित हुआ यह स्थान आगे शिक्षा का बडा केंद्र बना । तिब्बत के अनेक विद्यार्थी यहां से शिक्षा ग्रहण करके गए । तिब्बत के इतिहास में इस विद्यापीठ का उल्लेख कालचक्र तंत्र का विकास करनेवालेा विद्यापीठ’, इस प्रकार किया गया है; क्योंकि यहां खगोलशास्त्र का अध्ययन किया जाता था ।
८. गोलकी मठ अर्थात् विद्यापीठ, मध्यप्रदेश
जबलपुर (मध्यप्रदेश) के भेडाघाट में ६४ योगिनियों का मंदिर है । इसे ‘गोलकी मठ’ कहते हैं । इस गोलकी मठ का उल्लेख मलकापुर पिलर’ के रूप में प्रसिद्ध पुरातत्त्व शोध में भी मिला है । ‘मटमायूर वंश’ कलचुरी वंशों में से एक है । इस वंश के युवराजदेव (प्रथम) ने इस मठ की स्थापना की । मूलत: ये तांत्रिक और अन्य विषयों के विद्यापीठ थे । इस गोलकी मठ के अर्थात विद्यापीठ के अधीन अनेक विद्यालय भी आंध्रप्रदेश में थे ।
९. भारत में असंख्य ज्ञानमंदिर !
बंगाल में जगद्द्ल’, आंध्रप्रदेश में नागार्जुनकोंडा’, कश्मीर में शारदापीठ’, तमिलनाडु में कांचीपुरम’, ओडिशा में पुष्पगिरी’, उत्तरप्रदेश में वाराणसी’, ऐसे कितने नाम लें ..? ये सर्व ज्ञानमंदिर थे । ज्ञानपीठ थे । तब वनवासी और (आज की भाषा में) पिछडे हुए भागों में भी आवश्यक शिक्षा सभी को मिलती थी ।
– श्री. प्रशांत पोळ (संदर्भ : मासिक एकता’)
(‘विद्यापीठ’ का विचार सर्वप्रथम भारत ने ही जगत को दिया । आज वही भारत पश्चिमी मैकॉले की निरुपयोगी शिक्षापद्धति के चंगुल में जकडे हुआ है । यह देखकर, प्रत्येक भारतीय मन अस्वस्थ हो जाता है । प्राचीन भारतीय शिक्षापद्धति को वास्तविक अर्थों में गतवैभव प्राप्त करवाना हो, तो हिन्दू राष्ट्र का कोई विकल्प नहीं ! – संकलनकर्ता)
धन्यवाद ईस समय मे ऐसी अपनी सनातन संस्कृति की अलभ्य गौरवान्वित गाथा का ज्ञान प्राप्त हुआ।