समर्थ रामदास स्वामी

माघ कृष्ण पक्ष नवमी को ‘रामदासनवमी’ पडती है ! रामदासस्वामी ने अपने जीवनकाल में अनेक अवसरों पर उपदेश किया था । वे केवल उपदेश नहीं करते थे, जीवों का उद्धार भी करते थे । रामदासनवमी के उपलक्ष्य में ऐसी ही एक घटना के विषय में आज हम जाननेवाले हैं ।

 

१. भिक्षा न मिलने पर भी स्वामी का आनंदित रहना

एक गृहिणी का अहंकारी चित्त रामदासस्वामी ने कैसे शुद्ध किया, यह घटना सुननेयोग्य है । रामदासस्वामी, गांव-गांव जाकर संपन्न लोगों के घर के सामने खडा होते और कहते, ‘ॐ भवति भिक्षां देहि ॥’ इस भिक्षाटन में उनका कहीं अपमान होता, कहीं स्वागत होता, तो कहीं गृहस्थों अथवा गृहिणियों का राजसिक अहंकार प्रकट होता । यह देखकर समर्थ चुपचाप आगे बढ जाते । एक दिन एक गांव में समर्थ को किसी भी घर से भिक्षा नहीं मिली । फिर भी, वे नहीं चिढे ! कहा, ‘आनंद !’ रघुनाथ का नाम लिया ! यह भी ईश्‍वर की कृपा है ! इसमें दुःख क्यों मानना ! समर्थ दूसरे गांव चले दिए ।

 

२. रामदासस्वामी का भिक्षा में मिले अन्न को नदी के जल से धोकर खाना

वहां पहुंचने पर उन्हें अनुभव हुआ कि इस गांव में एक चौखंडी कोठी है । उस कोठी में रहनेवाले सब लोग राजसी अहंकार से भरे हुए हैं । वहां पहुंचकर समर्थ ने भिक्षा के लिए पुकार लगाई, ‘ॐ भवति भिक्षां देहि ।’ ये शब्द सुनकर एक गृहिणी उत्तम भिक्षा लेकर आई और समर्थ को दी । परंतु, भिक्षा देते समय उसके मन में अहंकार था कि ‘इस गोसाईं को मैं क्यों भिक्षा दे रही हूं । यह कितना पेटू है ! प्रतिदिन निर्लज्जता से भिक्षा मांगता है !’ समर्थ उसके इन विचारों को जान गए । मन-ही-मन हंसे और बोले, ‘रघुराई, इस गृहिणी को सुबुद्धि दीजिए ।’ पश्‍चात, वे उसकी भिक्षा स्वीकारते थे । समर्थ की विशेषता यह थी कि वे अन्न का स्वाद नहीं लेते थे । वे, भिक्षा में मिला हुआ पदार्थ लेकर नदी के तट पर जाते थे और वहां उसे धोते थे ! मीठा नहीं, तीखा नहीं, खट्टा नहीं, कोई स्वाद नहीं ! सात्त्विक अन्न ही ग्रहण करते थे । रस नहीं, अर्थात मसालेदार पदार्थ नहीं, उनका स्वाद भी नहीं । पदार्थ धोकर खाते !

 

३. भिक्षा देनेवाली अहंकारी महिला का समर्थ
रामदासस्वामी को उपदेश करने के लिए कहना

पश्‍चात, उस स्त्री के मन में विचार आया कि ये स्वामी यहां आते हैं, इतने दिनों से मैं इन्हें भिक्षा दे रही हूं ! इसलिए, इन्होंने मुझे कुछ उपदेश करना चाहिए । लेन-देन होना चाहिए ! लोग तो देवता से लेन-देन करते हैं । मैं संत से लेन-देन करूं, तो अनुचित कैसे ? भगवानजी, मैंने आपको भोग लगाया, आप भी मुझे कुछ दीजिए । यह लेन-देन ही तो हुआ ! क्या भगवान राजनीतिक नेता है कि वह कहता है तुम मेरे दल में आ जाओगे अथवा मेरे हस्ताक्षर अभियान में सम्मिलित हो जाओगे, तो मैं तुम्हें साढेतीन करोड दूंगा । परंतु उस स्त्री को लगा कि अब मुझे यह व्यापार (सौदा) करना चाहिए । इसमें कोई बुराई नहीं है ! इतनी बार हमारे घर का अन्न खाया है । स्वामी को उपदेश करने के लिए कहने में बुराई नहीं है । स्वामी से उस गृहिणी ने कहा, ‘स्वामी, आज आपको भिक्षा देती हूं; परंतु एक मांग है; मुझे उपदेश करना पडेगा ।’ समर्थ हंसकर बोले, ‘समय आने पर, अभी नहीं ।’ ये शब्द उसे अपमान जैसे लगे । उसे लगा, ‘प्रतिदिन भिक्षा लेकर जाते हैं और अब कहते हैं कि समय आने पर उपदेश करूंगा । ये कोई बात हुई क्या ? उपदेश सुनना तो मेरा अधिकार है । चुपचाप मेरे चरणों के पास बैठकर उपदेश देना चाहिए (पूर्णत: उलटा विचार)। पर समर्थ तो कहते हैं, ‘आज नहीं, समय आने पर उपदेश करूंगा ।’ परंतु, उस स्त्री ने उपदेश पाने के लिए हठ पकडा लिया । तब उन्होंने कहा, ‘माता जी, अब मेरे भोजन का समय हो गया है । आपको कल उपदेश करूंगा ।’ उस स्त्री ने कहा, ‘ठीक है ।’ उसे बहुत आनंद हुआ । घर में उसने सबको बताया कि आज मैंने किस प्रकार उस गोसाईं को अपनी बातों से हराया ! अब वह हमें कल उपदेश करने के लिए आएगा ।’

 

४. रामदासस्वामी ने महिला का राजस
अहंकार दूर करना और उसका उनसे क्षमायाचना करना

दूसरे दिन स्वामी ने एक विनोद किया । अपने कटोरे में कूडा भरकर उस कोठी में गए और आंगन में खडे होकर पुकार लगाई, ‘जय जय रघुवीर समर्थ ! माता भिक्षा लाइए । ॐ भवती भिक्षां देहि ।’ वह गृहिणी घर से बाहर आई और आज उपदेश मिलेगा, यह सोचकर बहुत प्रसन्न हुई । आज भिक्षा देने के लिए उसने खीर बनाई थी । खीर में मुनक्का, बदाम, केसर आदि मेवा डाला था । यह खीर बहुत स्वादिष्ट और पौष्टिक बनी थी । वह एक कटोरे में यह खीर भरकर ले आई और बोली, यह लीजिए आज की भिक्षा । जब समर्थ वह भिक्षा लेने के लिए अपना कटोरा आगे करते हैं, तब उसे उसमें कूडा दिखाई दिया । यह देखकर वह बोली, ‘अरे, यह क्या है ? आपके कटोरे में कूडा ? उसमें यह खीर डालेंगे ? तब तो मेरी खीर बेकार हो जाएगी ।’ इस पर समर्थ ने कहा, ‘चलेगा, डाल दीजिए ।’ यह बात वे एक-दो बार नहीं, १० बार बोले । फिर भी उस स्त्री ने उनके कटोरे में खीर नहीं डाली । उसने खीर का कटोरा अपने पास रखकर कहा, ‘आप पहले अपना कूडेवाला कटोरा धोकर लाइए, तब मैं आपको यह खीर दूंगी । समर्थ चले गए ! कटोरा स्वच्छ कर लाए और उस स्त्री के सामने रख दिया । जैसे ही उसने उस कटोरे में अपनी खीर डालने का प्रयत्न किया, उन्होंने ने अपना कटोरा हटा लिया और कहा, ‘आपको उपदेश चाहिए न ?’ उसने आनंदित होकर कहा, हां । समर्थ ने कहा, ‘थोडा सोचिए ! इस कटोरे में इतना कूडा था; इसलिए आपने इसमें खीर नहीं डाली । आपके चित्त में अहंकार का कूडा इतना भरा है कि मैं उसमें उपदेशरूपी खीर नहीं डाल सकता । आपके चित्त से जबतक यह कूडा नहीं निकल जाता, तबतक मैं उसमें उपदेश का पायस कैसे डाल सकता हूं ?’ समर्थ की यह बात, उसके लिए अंधेरे में बिजली चमकने जैसा था । पैर कांपने लगे, नेत्रों से आंसू बहने लगे । उसने समर्थ के पांव पकड लिए और गिडगिडाते हुए कहा, ‘महाराज, मुझसे भारी भूल हुई है; क्षमा कीजिए ।’ उस स्त्री का सारा राजसी अहंकार उसकी आंसुओं में बह गया । उस कालखंड में ऐसे लोग होते थे, जिनका अहंकार आंसुओं में बह जाए ! संतों के वचन उनके मन को छूते थे और उनमें परिवर्तन होता था । ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’, यह बात समर्थ ने उस स्त्री को समझा दिया और यह सत्य भी है । इसलिए, समर्थ ने कहा, ‘माई, चित्त को थोडा शुद्ध कीजिए ! अहंकार को थोडा घटाइए ! पहले अपने हृदय में थोडा स्थान बनाइए, जिसमें मेरा उपदेश समा सके, पश्‍चात उपदेश करूंगा !’

 

शिवाजी महाराज का झोली में डाला हुआ
राज्य लौटानेवाले और शिवराज्याभिषेक में अनुपस्थित
रहकर राजपुरोहित, राजगुरु बनने से मना
करनेवाले अनासक्त, निरहंकारी समर्थ रामदासस्वामी !

‘शिवाजी महाराज ने अपना राज्य रामदासस्वामी की झोली में डाल दिया था । रामदासस्वामी चाहते तो उसे स्वीकार कर राजा बन सकते थे । परंतु, उन्होंने ऐसा नहीं किया । भिक्षा में मिला राज्य शिवाजी को लौटा दिया । इसी प्रकार, उनके राज्याभिषेक में अनुपस्थित रहकर राजपुरोहित, राजगुरु होने का लाभ भी नहीं लिया । इसलिए, उनकी तुलना केवल राष्ट्रधर्म के लिए निरंतर प्रयत्नशील योगेश्‍वर श्रीकृष्ण से ही की जा सकती है ।’ – दादूमियां (मासिक धर्मभास्कर)

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