समाजव्यवस्था दीर्घकाल तक सुसंगठित रखने में सक्षम धर्मशास्त्र !

१८ वीं शताब्दी में ब्रिटिशों ने धर्मसंस्था पर ही आघात किया । भलीभांति प्रस्थापित समाज व्यवस्था को नष्ट करने के लिए उन्होंने अपनी पूरी क्षमता से प्रयास किए । ब्रिटिशों ने बहुत कुटिलतापूर्वक अपना कार्य किया । समस्त समाज का नियमन करनेवाला धर्म, स्मृति, अब केवल धार्मिक विधियां और संस्कारों का शास्त्र बताने तक ही सीमित हो गए । मृतप्राय अवस्था का यह धर्मशास्त्र हमें स्मरण है । हजारों वर्षों तक राजसत्ता होते हुए और न होते हुए भी समाज व्यवस्था दीर्घकाल तक सुसंगठित रखने में धर्मशास्त्र कितना प्रभावशाली रहा है ! सिंह के थाट घने जंगल में ही दिखाई देंगे; न कि सर्कस के पिंजरे में ! आज आप जो देख रहे हैं वह सर्कस के पिंजरे का शेर है!

धर्मशास्त्रकारों की सामाजिक भूमिका !

१. इस्लामी राज्य से पूर्व राजसत्ता हिन्दू धर्म के लिए
पूरक तथा इस्लामी राज्य में राजसत्ता हिन्दू धर्म विरोधी बनना

हिन्दू धर्म की परंपरा श्रुति, स्मृति, पुराणोक्त है । प्रत्येक स्मृति पर एक से अधिक भाष्य हैं । भाष्यकारों ने यह परंपरा अखंडित रखी । उनके द्वारा बताया गया अर्थ स्मृति के समान प्रमाण माना गया । याज्ञवल्क्य स्मृति पर की गई अष्टार्क टीका कश्मीर में भी मान्य है । देवगिरी का राजा, अमात्य हेमाद्री अर्थात हेमाडपंत ने स्मृति पर भाष्य नहीं लिखा; परंतु चतुर्वर्ग चिंतामणि ग्रंथ बनाया, जो धर्मशास्त्र संबंधी विचारों का संकलन है । इसे पूरे भारत में मान्यता मिली । पराशर माधवीय, यह माधवाचार्य का पराशरस्मृति पर विख्यात टीकाग्रंथ है! विजयनगर में हिन्दू साम्राज्य के स्थापना की प्रेरणा हरिहर और बुक्क को देनेवाले माधवाचार्य ही थे । आगे चलकर वे संन्यासी हो गए । शृंगेरी के शंकराचार्य की गद्दी पर भी वे ही थे । वही विद्यारण्य स्वामी थे । श्रुति, स्मृति और पुराण पर अधिष्ठित धर्मकी समर्थक राजसत्ता थी । राजसत्ता की मान्यता (sanction) थी । इस्लामी राज्य में उसमंें भिन्नता आ गई और प्रजा और राजा का धर्म भिन्न ही नहीं; एक दूसरे के विरोधी हो गए ।

२. स्वधर्म की रक्षा कैसे करें ?

अ. मुसलमानी राज्य में भी समाज की स्वधर्मनिष्ठा तत्कालीन समाज नेतृत्व द्वारा प्रखरता से ज्वलंत रखना

मुसलमानी राज होने पर भी हमारी प्राचीन समाज व्यवस्था जैसी की वैसी रखती थी । धर्म और समाज के अस्तित्व पर ही प्रश्‍नचिन्ह लगा था । धर्मरक्षा के लिए अब प्रशासन व राजदंड नहीं थे । समाजपुरूष को ही यह कार्य करना था । अनेक शक्तिशाली, प्रभावी, संपूर्ण व्यक्तित्वों की अत्यधिक आवश्यकता थी, वैसे वे मिलते गए । समाज के चरित्र को कसौटी पर परखा गया । कुछ अधोगति हुई, परंतु उससे बहुत अधिक हानि नहीं हुई । समाज की स्वधर्मनिष्ठा की ज्योत तत्कालीन सामाजिक नेतृत्व ने प्रखरता से प्रज्वलित रखी ।

आ. धर्मशास्त्रकारों द्वारा बनाई गई न्यायव्यवस्था पर समाज की अत्यधिक निष्ठा होना

अंग्रेजों के पग इस देश में पडे और उन्होंने हमारी स्वधर्मनिष्ठा तोड-मरोड कर रख दी । ब्रिटिशों ने स्वधर्मनिष्ठा का सूत्र पहचाना और उसी को तोडने का कार्य किया । इसमें उन्हें सफलता भी मिली । ब्रिटिशों की राजसत्ता हिन्दू धर्म के प्रतिकूल थी, फिर भी धर्मशास्त्रकारों ने जो न्यायव्यवस्था दी थी, उसपर समाज की अत्यधिक निष्ठा थी । उसे कैसे समाप्त करें ? यह अंग्रेजों की चिंता का विषय था । इस कारण उन्हें भारत में निष्कंटक राज्य चलाना संभव नहीं था ।

इ. इस देश के परंपरागत कानून का ज्ञान, सामान्य लोगों को अपेक्षा से अधिक होने की जानकारी ब्रिटिश अधिकारी द्वारा इंग्लैंड भेजी जाना  पेशवा का राज्य ब्रिटिशों ने जीता और फिर ब्रिटिश कानून लागू किया । एलिफीस्टन ने यहां की न्यायव्यवस्था की जानकारी भेजी (इ.स. १८२७ में) । इसमें उन्होंने कहा, इस देश के कानून का ज्ञान यहां के सामान्य लोगों को अपेक्षा से अधिक है, ऐसा ध्यान में आया है । पंचायती न्याय व्यवस्था में सशास्त्रता और एकसूत्रता होती है, इसका उन्हें भान हुआ । यह भान समाज के अत्यंत निचले स्तर पर भी अंर्तमन तक बिंबित है, इसका उन्हें आश्‍चर्य लगता । इसलिए भी क्योंकि इस वर्ग का अभी तक राज्यकर्ताआें से कभी कोई संबंध ही नहीं रहा । अधिकांश राज्यव्यवस्था में इस वर्ग की उपेक्षा हुई है, फिर भी इसका ज्ञान उनमें होना विशेष है ! न्याय व्यवस्था में अन्यों के साथ इस निचले वर्ग के सम्मिलित होने के कारण यह जागरूकता उनमें होगी; इसलिए स्थानीय न्यायव्यवस्था पर लगाए जानेवाले आरोप गलत हो जाते हैं ।

(महाराष्ट्र की न्यायदान पद्धति भा. इ. संशोधन मंडळ, वृत्त १९३७)

ई. वैभवकाल में और संकट की धगधगती अग्नि में धर्मशास्त्रकारों का समाज व्यवस्था को सुसंगठित रखना

समाज के लोकव्यवहार के नियमन और समाज संस्था का व्यवस्थापन धर्मशास्त्र ने किया है । स्मृतिकार यह कार्य करते हैं । स्वधर्मी राजा होते हुए भी उस समय उन्होंने राजसभा पर भी अंकुश लगाया है । धर्मशास्त्रों द्वारा धर्मनिर्णय देनेवाली संस्थाएं स्वायत्त होती थी । वैभवकाल में और संकट की धगधगती अग्नि में धर्मशास्त्रकारों ने समाज व्यवस्था सुसंगठित रखी । कितना अद्भुत कार्य है यह !

संदर्भ : मासिक घनगर्जित, मार्च २०१५

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