‘ईश्वरप्राप्ति के लिए की गई साधना में सेवा का महत्त्व है । हमें सेवा इस प्रकार करनी चाहिए जिससे हमारे स्वभावदोष नष्ट हों, गुण बढें, सेवा का आनंद मिले और हमारी शीघ्र आध्यात्मिक उन्नति होगा । यह विचार हमारे अंतर्मन में सदा रहना आवश्यक है । नहीं तो ‘सेवा के माध्यम से ईश्वरप्राप्ति’ का लक्ष्य प्राप्त करना हमारे लिए कठिन होगा । इसलिए आगे दिए सूत्रों का विचार करें ।
१. सेवा मन से स्वीकार करना
उत्तरदायी साधकों द्वारा दी गई सेवा जब हम मन से स्वीकारते हैं, तब सेवा मन से होने लगती है तथा ‘मन और बुद्धि का प्रयोग कर वह अधिक अच्छी कैसे करें ?’, इसका विचार होने लगता है । तब ईश्वर भी हमें उस सेवा में और क्या करना चाहिए, यह सिखाते हैं । उससे हमें समाधान और आनंद मिलने लगता है ।
२. कोई भी सेवा ‘गुरुसेवा’ मानकर कृतज्ञताभाव से करें !
परात्पर गुरु ने प्रत्यक्ष में हमें सेवा नहीं दी है, तो भी ऐसा भाव रखें कि हमें उनकी कृपा से ही सेवा मिली है, तभी वह ‘गुरुसेवा’ होगी । ‘परात्पर गुरु ने मुझे अपना उद्धार करने के लिए यह सेवा दी है’, यह भाव रखकर परिपूर्ण और कृतज्ञताभाव से सेवा करें ।
३. सेवा की व्याप्ति निकालना
सेवा की व्याप्ति निकालना, अर्थात उससे संबंधित सूत्रों का चिंतन करना । जैसे ‘सेवा का उद्देश्य क्या है ? सेवा से संबंधित कौन-कौन से साधक हैं ? सेवा किस प्रकार करनी है ? सेवा के अंतर्गत मुझे क्या-क्या करना है ? सेवा से मुझे क्या साध्य करना है ?’ सेवा की बारीकियां समझने के लिए तथा वह परिपूर्ण होने के लिए व्याप्ति निकालना आवश्यक है ।
४. सेवा की जांच सूची बनाना
‘सेवा में मुझे किन सूत्रों का ध्यान रखना है ?’, इसकी सूची बनाकर एक-एक सूत्र पूर्ण होने पर उसको चिन्हित करने की प्रणाली अपनाएं । ऐसा करने से सेवा के किसी भी सूत्र का विस्मरण नहीं होता और चूकें होने की संभावना भी घटती है ।
४ अ. सेवा की नीतियों का पालन करना
अनुभव होने पर ‘सेवा करते समय कौनसी नीतियों को ध्यान में रखना है ?’, यह भी ज्ञात होता है । उनका पालन करें, उदा. ग्रंथप्रदर्शनी में ग्रंथों का वितरण करते समय ‘उधार न दें’, यह नीति स्पष्ट है । हमें भी जांच सूची के लिए कोई नया सूत्र अथवा नीति सूझती है तो उत्तरदायी साधक को बताएंं तथा उसे जांच सूची में अथवा नीति में जोडें ।
५. सेवा की कार्यप्रणाली का पालन करना
प्रत्येक सेवा सुलभ, अचूक और कम समय में होने के लिए एक कार्यप्रणाली होती है । सेवा नई हो तो प्रथम उसकी कार्यप्रणाली निर्धारित करें । इससे अनुशासन का पालन होता है ।
६. सेवा अहंविरहित करें !
‘सेवा मैंनें की । सेवा मेरे कारण हुई’, यह अहंयुक्त विचार हैं; इसलिए सेवा से पूर्व ईश्वर की शरण जाकर प्रार्थना करें तथा सेवा पूर्ण होने पर कृतज्ञता व्यक्त करें । निरंतर ऐसा करने से ईश्वर ही हमसे सेवा करवा कर ले रहे हैं, इसकी अनुभूति होती है । हमें यह ध्यान में रखकर सेवा करने का प्रयास करना है कि सेवा के माध्यम से साधना हो ।
७. स्वभावदोष-निर्मूलन और गुणसंवर्धन के लिए प्रयास करना
हमसे सेवा में चूक हो तो वह किस स्वभावदोष के कारण हुई, यह ढूंढकर उस स्वभावदोष को दूर करने का प्रयास करना चाहिए तथा सेवा के माध्यम से कौनसे गुण स्वयं में ला सकते हैं, इसका विचार कर उस दृष्टि से प्रयास करना चाहिए । जिससे सेवा अचूक होगी और हम स्वयं में गुण भी ला सकेंगे ।
८. चूकों का पछतावा होना तथा प्रायश्चित्त लेना
सेवा करते समय हमसे चूक हो; तो हमें पछतावा होना चाहिए । जब पछतावा होता है, तभी हम चूक न होने के लिए प्रयास करते हैं और प्रायश्चित्त भी लेते हैं ।
९. सेवा में समयसीमा का पालन करना और प्रधानताक्रम से करना महत्त्वपूर्ण
सेवा समयसीमा में पूर्ण करने की ओर ध्यान दें । कुछ सेवाआें को समय पर पूर्ण करना ही महत्त्वपूर्ण है, अन्यथा उस सेवा का मूल्य नहीं रहता । वह सेवा उस-उस समय करना, तथा प्रधानता के क्रम से करना महत्त्वपूर्ण है । हम कोई सेवा कर रहे हों, तो ‘जो दिखे वह कर्तव्य’ इस भाव से कृत्य करना भी आवश्यक है ।
१०. दायित्व लेकर सेवा करना आवश्यक !
दायित्व लेकर सेवा करने से हममें नेतृत्वगुण बढता है और अन्य गुण भी आते हैं । हमारी कार्यक्षमता और आत्मविश्वास बढता है ।
११. सहसाधकों को चूकें बताना
हमारे साथ सेवा करनेवाले साधकों की ध्यान में आई चूकें उन्हें बताकर सहायता करें । इससे समष्टि साधना होती है । कई बार हम ‘भावनाशीलता’ स्वभावदोष के कारण सहसाधकों को उनकी चूकें बताने पर उन्हें क्या लगेगा, ऐसा विचार कर चूकें बताना टालते हैं । ऐसा न करें । उसमें हमारी तथा सहसाधकों की भी हानि है ।
१२. अपनी सेवा का ब्यौरा चूकोंसहित देना
उत्तरदायी साधकों को सेवा का ब्यौरा निश्चित समय पर अपनी चूकों के साथ दें । अनेक बार हम अपनी प्रतिमा संभालते हुए जो अच्छा किया वह बताते हैं और चूकें बताना टालते हैं । परंतु ऐसा न करें । हम अपनी चूकें बताएंगे तो उत्तरदायी साधक हमें योग्य दृष्टिकोण दे सकेंगे ।
१३. चूक स्वीकारना
कोई सेवा की चूकें बताएं, तो बिना स्पष्टीकरण दिए उन्हें १०० प्रतिशत स्वीकारें । स्पष्टीकरण देने का अर्थ चूक न स्वीकारना है । ऐसा करने की अपेक्षा यह विचार करें कि हम सेवा में कहां कम रहे । हमारी १०० प्रतिशत चूक न हो, तो भी यह ढूंढें की सेवा के किस स्तर पर मैं कम रहा ।
१४. सेवा से सीखना
हमें यह चिंतन करना चाहिए कि सेवा से, सेवा में सम्मिलित साधकों से तथा सेवा में हुई चूकों से मुझे क्या सीखने को मिला । ‘ईश्वर ने मुझे सिखाया’, इस विषय में कृतज्ञताभाव रखकर सीखने का आनंद लें ।
सबसे अंत में महत्त्वपूर्ण यही है कि अपनी गुरुसेवा गुरुदेव के श्रीचरणों में अर्पण करें और उन्हें प्रार्थना करें कि ‘ऐसे ही सेवा पुनःपुन: मिलती रहे’ । क्योंकि सेवा गुरुकृपा का माध्यम है ।
– (सद्गुरु) श्री. सत्यवान कदम, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (२७.१२.२०१७)