१. गोपीभाव
गोपीभाव का अर्थ है श्रीकृष्णमिलन की तडप अथवा श्रीकृष्णमिलन की आर्तता ।
२. कृष्णभाव
कृष्णभाव का अर्थ है केवल शुद्ध आनंद । कलियुग में यह दोनों बातें अत्यंत ही दुर्लभ हो गई हैं ।
३. द्वापारयुग की महिमा (भक्तिरस में डूबा युग)
द्वापारयुग में संपूर्ण वातावरण ही गोपीभावमय होता था । यहां के प्रत्येक पेड-बेल, नभांगन, भूतलांगन, गोप-गोपियों के हृदय, गाय-बछडे, नदी-जल सभी कुछ श्रीकृष्णमिलन की भक्ति से ओतप्रोत थे । वातावरण श्रद्धा, भाव तथा भक्ति के त्रिवेणी संगम से व्याप्त था ।
३ अ. श्रद्धा, भाव तथा भक्ति का महत्त्व : भाव से ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त होता है, तो श्रद्धा से प्रत्यक्ष ईश्वर ही प्राप्त होते हैं ।
३ आ. प्रत्येक युग का युगधर्म अलग होता है । द्वापारयुग का युगधर्म ही भक्ति था ।
४. गोपियों का महत्त्व तथा उनके आंतरिक गुणों का विवरण
४ अ. साक्षात चैतन्यरसता
गोपी अर्थात श्रीकृष्णमिलन की साक्षात चैतन्यरसता तथा प्रत्यक्ष श्रीकृष्ण अर्थात ईश्वर का पूर्णस्वरूप ब्रह्मत्व ।
४ आ. भक्तिरस से ओत-प्रोत द्वैत की प्रत्यक्ष सगुण शक्ति
गोपी अर्थात श्रीकृष्णस्वरूप भक्तिरस से परिपूर्ण द्वैत की प्रत्यक्ष सगुण शक्ति है ।
४ इ. श्रीकृष्णस्वरूप की साकारता
गोपी अर्थात श्रीकृष्णस्वरूप की तन्मयजन्य साकारता है ।
४ ई. श्रीकृष्णरूपी चैतन्य की तरल धारा
गोपी श्रीकृष्णरूपी चैतन्य की एक तरल धारा है । तथा श्रीकृष्णतत्त्व की शुद्ध, निर्झर पारदर्शकता है ।
४ उ. श्रीकृष्ण की हरकतों का लचीलापन
वह श्रीकृष्ण की हरकतों का लचीलापन है, तथा श्रीकृष्णतत्त्वरूपी ऊर्जा की गतिमानता भी है ।
४ ऊ. गोपीमन ईश्वर के सर्वश्रेष्ठ कार्यपहलुओं से भारित होना
आर्तता, व्याकुलता, तरलता, स्पष्टता, सहजता, मोहकता, सुंदरता, समरसता, एकरूपता, अखंडता ऐसे सभी गुणों से व्याप्त गोपीमन ईश्वर के सर्वश्रेष्ठ कार्यपहलुओं से भारित है ।
४ ए. गोपियों का सर्वस्व अर्थात श्रीकृष्ण !
गोपी श्रीकृष्ण का सर्वस्व हैं, तो श्रीकृष्ण गोपियों के सर्वस्व हैं ।
४ ऐ. गोपीभाव तथा कृष्णभाव दोनों ही सर्वव्यापकता के गुण से जुडे होना
गोपीभाव तथा कृष्णभाव दोनों ही सर्वव्यापकता के गुण से जुडे हैं । इस प्रकार इन दोनों भावों में भी अद्वैत तत्त्व ही है ।
४ ओ. गोपीभाव की अनुभूति आने पर ही श्रीकृष्णमिलन की खरी आस एवं आर्तता की अनुभूति ले पाना
श्रीकृष्णतत्त्व के सर्वविध गुणों के अष्टपहलुओं द्वारा साकार की गई व्यापकता देखनी हो, तो गोपीभाव का अनुभव करना चाहिए, तभी श्रीकृष्णमिलन की खरी आस, आर्तता की अनुभूति हो सकती है ।
४ औ. भक्तिरस की मधुरता अर्थात गोपी तथा
मधुरता की सहजता अर्थात श्रीकृष्णभाव
४ अं. श्रीकृष्णभक्ति की प्रेमरसमय उत्कटता अर्थात गोपीभाव
५. श्रीकृष्णभक्ति का बीज भारतभूमि में बोने की धुरी अनेक संतों द्वारा उठाना
५ अ. भगवत् भक्ति की धुरी अपने कंधों पर उठाने हेतु अनेक संतों द्वारा भारतभूमि में जन्म लेना
कलियुग में यद्यपि सभी ओर तमोगुण ने अधर्म फैला रखा हो, तो भी भगवत्भक्ति की धुरी अपने कंधों पर उठाने हेतु अनेक संतों ने इस मिट्टी में जन्म लिया और भक्ति की महिमा सारे विश्व को सीखाई । इसमें वारकरी संप्रदाय सबसे अग्रणी था ।
५ आ. अनेक संतों द्वारा अपनी वाणी से भागवत के भक्तिधर्म का प्रसार किया जाना
भागवत के भक्तिधर्म की पताका अनेक संतों ने अपने भावरसपूर्ण ओजस्वी वाणी से सर्वत्र फहराई ।
५ इ. श्रीकृष्णगीता की भावपुकार से सर्वत्र भाव के बीज बोना आरंभ होना
श्रीकृष्णगीता के माध्यम से गाए जानेवाले भावपूर्ण पदों से इसी भक्तिरस में डूबनेवाले भक्तों ने भी सर्वत्र भाव-भक्ति का बीज बोना आरंभ किया ।