कुंभनगरी नासिक की महिमा
नासिक वास्तव में पुण्यभूमि है । इस नगरी को साक्षात भगवान शिव, प्रभु श्रीरामचंद्र और अन्य देवी-देवताआें के चरणस्पर्श हुए हैं; इसलिए वह आध्यात्मिक नगरी भी है । नासिक जैसे त्र्यंबकेश्वर में ज्योर्तिलिंग के लिए प्रसिद्ध है, वैसे ही वह अति प्राचीन श्री कपालेश्वर के मंदिर के लिए भी प्रसिद्ध है ।
१. ज्योर्तिलिंगों के दर्शन का फल कपालेश्वर महादेव के दर्शन से प्राप्त हो जाना
शिवक्षेत्र त्र्यंबकेश्वर में नौ कोशात्मक ब्रह्मगिरीरूपी शिवलिंग के सान्निध्य में बसे नासिक क्षेत्र में कपालेश्वर शिवलिंग की स्थापना स्वयं भगवान विष्णु ने की है । तीर्थयात्री गोदावरी नदी के किनारे स्थित रामकुंड के सामने की सीढियां चढकर श्री कपालेश्वर के दर्शन करेते हैं ।
सर्वेभ्योऽप्याधिका काशी तत: पञ्चवटी स्मृता ।
कपालेश्वरसंज्ञं तु ततोऽप्याधिकमुच्यते ॥ – श्री कपालेश्वरमहादेव स्तोत्र
अर्थ : सर्व क्षेत्रों में काशी श्रेष्ठ है । उससे भी अधिक श्रेष्ठ पंचवटी है और कपालेश्वर का स्थान तो अत्यंत श्रेष्ठ है । १२ ज्योर्तिलिंगों के दर्शन का फल कपालेश्वर महादेव के दर्शन से मिलता है, इसके साथ ही एक यज्ञ करने से जो पुण्य मिलता है, वह पुण्य कपालेश्वर-दर्शन से मिलता है । इतनी अगाध महिमा कपालेश्वर शिवलिंग की है ।
२. महादेव के सामने नंदी न होने के संबंध में पद्मपुराण में बताई कथा
कपालेश्वर का मंदिर ही त्रिलोक का एकमात्र मंदिर है, जिसमें महादेव के सामने नंदी नहीं हैं । सामान्यतः किसी भी शिव मंदिर में प्रथम नंदी के दर्शन और नंदी के दो सींगों से शिवलिंग के दर्शन लेने की प्रथा है । इस विषय में पद्मपुराण में दी कथा इस प्रकार है ।
२ अ. भगवान शिव को ब्रह्महत्या का पाप लगना
ब्रह्मदेव के ५ मुख थे । वे ५ मुखों से ५ वेदों का पठन करतेे हैं; परंतु उनके ५ वें मुख से एक बार विष्णुनिंदा हो गई । विष्णुनिंदा सुनकर हरिभक्त शंकर अत्यंत क्रोधित हो गए । उन्होंने ब्रह्मदेव के हाथ से ब्रह्मास्त्र छीनकर, विष्णुनिंदा करनेवाले मुख का शिरच्छेद कर दिया । इसलिए भगवान शिव को ब्रह्महत्या का पाप लगा ।
२ आ. पापक्षालन के लिए भगवान शिवजी का उत्तर सहित दक्षिण के तीर्थों की यात्रा करना
इस पापक्षालन के लिए भगवान शिवजी ने उत्तर में अनेक तीर्थयात्राएं कीं; परंतु पापों से उनकी मुक्ति नहीं हुई । तब दुःखी होकर वे दक्षिण की ओर आए । नासिक क्षेत्र के समीप गंगापुर-गोवर्धन, इन गावों के आसपास तब ब्राह्मणों की बस्ती थी । वहां देवशर्मा नामक ब्राह्मण रहता था । उसके पास गाय और बछडा था । भगवान शिव वहां रुक गए और उन्हें लगभग मध्यरात्रि में गाय-बछडे के बीच संवाद सुनने मिला । गाय बछडे को समझा रही थी, कल देवशर्मा ब्राह्मण तुम्हारी नाक में नकेल डालनेवाला है । तुम शांति से डलवा लेना । इसपर बछडा बोला, ‘‘मैं नाक में नकेल नहीं डलवाऊंगा । देवशर्मा ने यदि बलपूर्वक ऐसा किया, तो मैं उसे मार डालूंगा ।’’ तब गाय ने बछडे को ब्रह्महत्या के महाभयंकर पाप के विषय में बताकर समझाया कि उस पाप से मुक्त नहीं होंगे, । इस पर बछडे ने गाय से कहा, ‘‘तुम चिंता मत करो । ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त होने का मार्ग मुझे ज्ञात है ।’’
२ इ. बछडे से शिवजी को ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त होने का मार्ग समझ में आना
अगले दिन देवशर्मा उस बछडे की नाक में नकेल डालने के लिए आया । बछडे की नाक में नकेल डालने के प्रयास में बछडे ने अपना रस्सा तोडा और अपने सींगों से उस ब्राह्मण को मार गिराया । इससे उस सफेद बछडे का शरीर काला पड गया । तब वह बछडा सीधे रामकुंड पर आया और वहां अरुणा, वरुणा और गोदावरी नदियों के त्रिवेणी संगम में स्थित अस्थिविलय तीर्थ में कूद पडा और उसका शरीर पूर्ववत सफेद हो गया ।
२ ई. भगवान शिव के पापमुक्त हुए स्थान पर श्रीविष्णु द्वारा स्वयं कपालेश्वर शिवपिंडी की स्थापना करना
भगवान शिव ने यह सब देखा । उन्होंने भी उस तीर्थ में स्नान किया और वे उसी समय ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो गए । बछडे ने (नंदी ने) उन्हें पाप से मुक्ति का मार्ग दिखाया, अत: यहां भगवान शिव ने नंदी को गुरु माना है; इसलिए यहां शिवपिंडी के सामने नंदी नहीं है ।
भगवान शिव के ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त होते ही विष्णु सहित सर्व देवी-देवताआें ने पुष्पवृष्टि की । तदुपरांत श्रीविष्णु ने इस स्थान पर अपने हाथों से शिवपिंडी की स्थापना कर उसे कपालेश्वर नाम दिया ।
३. कपालेश्वर मंदिर का प्राचीन इतिहास
कपालेश्वर शिवलिंग अति प्राचीन है । इसका शोध इ.स. ११०० के आसपास लगा । कुछ लोगों को रामकुंड के निकट की पहाडी पर एक गुफा दिखाई दी । उस गुफा में शिवलिंग था । तब उन्होंने वहां के ब्राह्मणों से विचार-विमर्श कर, इसे कपालेश्वर मंदिर घोषित किया । तब से वहां पूजा-अर्चना आरंभ हो गई । अरुणा-गोदावरी नदियों के संगम पर स्थित इस मंदिर को यवनों ने नष्ट कर दिया था ।
कालांतर में वहां के पाटील नामक श्रद्धालु ने गवळी राजा से मंदिर निर्माण करने के लिए कहा । वर्ष १६५५ में कोळी राजा ने उस काल के सहस्रों रुपए खर्च कर मंदिर का निर्माण कराया और वहां गुरवों (पुजारियों) की नियुक्ति की । तदुपरांत कृष्णाजी पाटील ने २७५ रुपये व्यय कर सीढियां बनवाईं । श्री. जगजीवनराव ने वर्ष १७६३ में १० सहस्र रुपये व्यय कर मंदिर के आगे के भाग का निर्माण किया ।
४. श्री कपालेश्वर मंदिर में पूजा का नित्यक्रम
यहां भगवान शिव की नित्य पूजा-अर्चा की जाती है । प्रत्येक सोमवार श्री कपालेश्वर के चांदी के मुकुट का महास्नान करवाकर वहां संकल्प सहित षोडशोपचार पूजन किया जाता है । कार्तिक माह में श्री कपालेश्वर को हरिहर, अर्धनारी नटेश्वर, ब्रह्मरूप आदि विविध रूपों में सुशोभित किया जाता है । प्रत्येक श्रावणी सोमवार, वैकुंठ चतुर्दशी, त्रिपुरारी पूर्णिमा और शिवरात्रि को भगवान का उत्सव मनाया जाता है । श्री कपालेश्वर मंदिर में गुरव और ब्रह्मवृंद को पूजा का सामायिक अधिकार है । श्री कपालेश्वर अत्यंत जागृत देवस्थान है ।