गुरुपूर्णिमाका अध्यात्मशास्त्रीय महत्त्व

१. गुरुपूर्णिमा

विश्वको सनातन धर्मकी एक अनमोल देन है ‘गुरु-शिष्य परंपरा’ !

संत गुलाबराव महाराजजीसे किसी पश्चिमी व्यक्तिने पूछा, ‘भारतकी ऐसी कौनसी विशेषता है, जो न्यूनतम शब्दोंमें बताई जा सकती है ?’ तब महाराजजीने कहा, ‘गुरु-शिष्य परंपरा’ । इससे हमें इस परंपराका महत्त्व समझमें आता है । ऐसी परंपराके दर्शन करवानेवाला पर्व युग-युगसे मनाया जा रहा है, तथा वह है, गुरुपूर्णिमा ! हमारे जीवनमें गुरुका क्या स्थान है, गुरुपूर्णिमा हमें इसका स्पष्ट पाठ पढाती है ।

 

२. गुरुका महत्त्व

गुरुदेव वे हैं, जो साधना बताते हैं, साधना करवाते हैं एवं आनंदकी अनुभूति प्रदान करते हैं । गुरुका ध्यान शिष्यके भौतिक सुखकी ओर नहीं, अपितु केवल उसकी आध्यात्मिक उन्नतिपर होता है । गुरु ही शिष्यको साधना करनेके लिए प्रेरित करते हैं, चरण दर चरण साधना करवाते हैं, साधनामें उत्पन्न होनेवाली बाधाओंको दूर करते हैं, साधनामें टिकाए रखते हैं एवं पूर्णत्वकी ओर ले जाते हैं । गुरुके संकल्पके बिना इतना बडा एवं कठिन शिवधनुष उठा पाना असंभव है । इसके विपरीत गुरुकी प्राप्ति हो जाए, तो यह कर पाना सुलभ हो जाता है । श्री गुरुगीतामें ‘गुरु’ संज्ञाकी उत्पत्तिका वर्णन इस प्रकार किया गया है,

 

गुकारस्त्वन्धकारश्च रुकारस्तेज उच्यते ।
अज्ञानग्रासकं ब्रह्म गुरुरेव न संशयः ।। – श्री गुरुगीता

अर्थ : ‘गु’ अर्थात अंधकार अथवा अज्ञान एवं ‘रु’ अर्थात तेज, प्रकाश अथवा ज्ञान । इस बातमें कोई संदेह नहीं कि गुरु ही ब्रह्म हैं जो अज्ञानके अंधकारको दूर करते हैं । इससे ज्ञात होगा कि साधकके जीवनमें गुरुका महत्त्व अनन्य है । इसलिए गुरुप्राप्ति ही साधकका प्रथम ध्येय है । गुरुप्राप्तिसे ही ईश्वरप्राप्ति होती है अथवा यूं कहें कि गुरुप्राप्ति होना ही ईश्वरप्राप्ति है, ईश्वरप्राप्ति अर्थात मोक्षप्राप्ति- मोक्षप्राप्ति अर्थात निरंतर आनंदावस्था । गुरु हमें इस अवस्थातक पहुंचाते हैं । शिष्यको जीवनमुक्त करनेवाले गुरुके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करनेके लिए गुरुपूर्णिमा मनाई जाती है ।

 

३. गुरुपूर्णिमा उत्सव मनानेकी पद्धति

सर्व संप्रदायोंमें गुरुपूर्णिमा उत्सव मनाया जाता है । यहांपर महत्त्वपूर्ण बात यह है कि गुरु एक तत्त्व हैं । गुरु देहसे भले ही भिन्न-भिन्न दिखाई देते हों; परंतु गुरुतत्त्व तो एक ही है । संप्रदायोंके साथही विविध संगठन तथा पाठशालाओंमें भी गुरुपूर्णिमा महोत्सव श्रद्धापूर्वक मनाया जाता है ।

 

गुरुपूजनके लिए चौकीको पूर्व-पश्चिम दिशामें रखिए । जहांतक संभव हो, उसके लिए मेहराब अर्थात लघुमंडप बनानेके लिए केलेके खंभे अथवा केलेके पत्तोंका प्रयोग कीजिए । गुरुकी प्रतिमाकी स्थापना करने हेतु लकडीसे बने पूजाघर अथवा चौकीका उपयोग कीजिए । थर्माकोलका लघुमंडप न बनाइए । थर्माकोल सात्त्विक स्पंदन प्रक्षेपित नहीं करता । पूजन करते समय ऐसा भाव रखिए कि हमारे समक्ष प्रत्यक्ष सदगुरु विराजमान हैं । सर्वप्रथम श्री महागणपतिका आवाहन कर देशकालकथन किया जाता है । श्रीमहागणपतिका पूजन करनेके साथ-साथ विष्णुस्मरण किया जाता है । उसके उपरांत सदगुरुका अर्थात महर्षि व्यासजीका पूजन किया जाता है । उसके उपरांत आद्य शंकराचार्य इत्यादिका स्मरण कर अपने-अपने संप्रदायानुसार अपने गुरुके गुरुका पूजन किया जाता है । यहांपर प्रतिमापूजन अथवा पादुकापूजन भी होता है । उसके उपरांत अपने गुरुका पूजन किया जाता है । इस दिन गुरु अपने गुरुका पूजन करते हैं ।

४. भावपूर्ण विधिसे पाद्यपूजा करनेसे सूक्ष्म स्तरपर क्या परिणाम होते हैं ?

१. गुरुमें निर्गुण तत्त्व स्थिर रूपमें विद्यमान होता है ।

२. जब उनके सहस्रारचक्रमें निर्गुण तत्त्वका स्थिर वलय विद्यमान रहता है, तब ईश्वरसे उनका संधान होता है । तदुपरांत वे शिवदशामें रहते हैं ।

३. साथही शांतिका वलय भी धीमी गति से घूमता रहता है ।

४. उनमें आनंदका कार्यरत वलय घूमता रहता है ।

५. उनकी देहसे वातावरणमें आनंदके कणोंका प्रक्षेपण होता है । इन कणोंमें प्रीति भी अंतर्भूत होती है ।

६. ईश्वरीय चैतन्यका प्रभाव गुरुकी ओर आकृष्ट होता है ।

७. उनकी देहमें चैतन्यके वलय कार्यरत रहते हैं । इन वलयोंसे वातावरणमें चैतन्यके प्रवाहोंका प्रक्षेपण होता है ।

८. गुरुके चरणोंसे चैतन्यके वलयोंका प्रक्षेपण होता है ।

९. साथही सगुण शक्तिका प्रक्षेपण होता है ।

१०. तदुपरांत चैतन्यके वलयोंका भी प्रक्षेपण होता है ।

११. पाद्यपूजा करते समय उनके चरणोंसे प्रक्षेपित शक्तिकी तरंगें भावपूर्वक पूजा करनेवालेकी देहमें प्रविष्ट होती हैं ।

१२. इस शक्तिके कण व्यक्तिकी देहमें लंबे समयतक कार्यरत रहते है एवं उसे कार्य करनेके लिए ऊर्जा प्रदान करते हैं ।

१३. पाद्यपूजा करनेवालेमें शरणागत भाव जागृत होता है एवं इसका रूपांतर अव्यक्त भावमें होता है ।

१४. पाद्यपूजा करनेवाले व्यक्तिका गुरुके साथ संधान साध्य होता है ।

१५. गुरुद्वारा कृपाशीर्वादके प्रवाह व्यक्तिकी ओर प्रक्षेपित होते हैं ।

 

५. पाद्यपूजाके उपरांत संतोंके चरणोंका सूक्ष्म-चित्र

१. गुरुके चरणोंमें शांतिका स्थिर वलय विद्यमान रहता है ।

२. चरणोंद्वारा वातावरणमें चैतन्यके वलयोंका प्रक्षेपण होता है एवं साथमें आनंदके कण भी प्रसारित होते हैं ।

३. साथही उनके चरणोंमें शक्तिके वलय कार्यरत रहते हैं एवं उससे शक्तिके प्रवाह प्रक्षेपित होते हैं ।

इस सूक्ष्म-चित्रद्वारा गुरुपूर्णिमाके दिन भावपूर्वक पाद्यपूजा करनेका महत्त्व स्पष्ट होता है ।

संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ ‘त्यौहार, धार्मिक उत्सव एवं व्रत’

 

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