वास्तुशास्त्र (भवननिर्माणशास्त्र)

सहस्रों वर्ष पहले से वास्तुशास्त्र के गहन ज्ञान से संपन्न है महान हिन्दू धर्म !

सहस्रों वर्ष पहले प्रकृति, भवन और व्यक्ति के शरीर की ऊर्जा का संतुलन वास्तुशास्त्र के माध्यम से साधने की कला हमारे देश के महान दार्शनिक जानते थे । प्रत्येक घर की रचना कैसी होनी चाहिए, इसका सूक्ष्म विचार हिन्दू वास्तुशास्त्र में किया गया है । घर में देवघर कहां होना चाहिए, आभूषणों की अलमारी कहां रखनी चाहिए, ऐसी अनेक बातों के विषय में उचित मार्गदर्शन किया गया है ।’

 

भारतीय वास्तुशास्त्र समान गहन विचार दूसरे देशों के आधुनिक वास्तुशास्त्र में नहीं !

अधिवक्ता वझे ने कहा कि भारत के प्राचीन और विदेश के आधुनिक वास्तुशास्त्रों में मौलिक अंतर यह है कि विदेशी वास्तुशास्त्र में भवन के केवल टिकाऊपन पर बल दिया गया है; परंतु भारतीय वास्तुशास्त्र में टिकाऊपन के साथ-साथ उसमें रहनेवाले व्यक्ति, उसकी सोच और देवता के प्रति श्रद्धा का भी विचार किया गया है । इसके अतिरिक्त, हमारे भारतीय वास्तुशास्त्र का आधार सूर्य-किरणें, चुंबकीय आकर्षण और प्रमुख दिशा-उपदिशाएं भी हैं । – (दिशाचक्र, पृ. ८३, परम पूज्य परशराम माधव पांडे महाराज, अकोला)

 

पाश्‍चात्य-शैली से बने भवन १० वर्ष में ढह जाते हैं; पर
भारत में सहस्रों वर्ष पहले बने मंदिर आज भी ज्यों-के-त्यों खडे हैं !

कहां सहस्रों वर्ष पहले समुद्र में अजर रामसेतु बनानेवाले भारतीय स्थापत्यविशारद नल, तो कहां निर्माण पूरा होने से पहले ही ढहनेवाले पुल और भवन बनानेवाले आज के भ्रष्ट स्थापत्यविशारद (अभियंता) !

 

वास्तुशिल्प का इतिहास !

भारत में वास्तुशास्त्र वेदकाल से है, जिसके अनेक प्रमाण मिले हैं । ग्रंथ ‘गृह्यसूत्र’ में वास्तुशास्त्र के अनेक सिद्धान्त मिलते हैं । ‘शुल्बसूत्र’ में बताया गया है कि यज्ञवेदी बनाने में किस प्रकार की ईंटों का प्रयोग करना चाहिए । वाल्मीकि रामायण में अनेक स्थानों पर नगर, नदी का घाट तथा दुर्ग की प्राचीन (दीवार) बनाने के विषय में वर्णन मिलता है ।

वेदकाल से विकसित हमारे वास्तुशास्त्र का प्रमाण, भारत के प्राचीन देवालय हैं । इन देवालयों के इतिहास का अध्ययन करने पर पता चलता है कि इनके निर्माण में वेदान्त, योगशास्त्र के अतिरिक्त भूगोल, भौतिक, गणित, ज्यामिती आदि शास्त्रों तथा गुरुत्वाकर्षण आदि के नियमों का भी ध्यान रखा गया था । वैज्ञानिक सिद्धांतों का कलात्मक ढंग से उपयोग करनेवाले ये देवालय, ब्रह्मज्ञानप्राप्ति के स्थान होने के साथ-साथ, समाज को संगठित रखने के केंद्र भी होते थे । इतना ही नहीं, ये उस काल में समाज-जीवन के केंद्र हुआ करते थे ।

– श्री. संजय मुळ्ये, रत्नागिरी

 

वेदकाल से विकसित वास्तुशास्त्र और विज्ञान के उत्तम उदाहरण, हिन्दुओं के देवालय !

वेदकाल में विकसित वास्तुशास्त्र का प्रमाण, भारत के प्राचीन देवालय हैं । इनके निर्माण में विज्ञान और अध्यात्म का अच्छा समन्वय दिखाई देता है । देवालयों के निर्माणशास्त्र का अध्ययन कर, उसका उपयोग समाज के लिए करना, यह आधुनिक विज्ञानयुग के वास्तुशास्त्रज्ञों के लिए बडी चुनौती है ।

 

चुंबकशक्ति का उपयोग कर, मंदिर में मूर्ति स्थापित करना !

ऐसा कहा जाता है कि देश के पश्‍चिमी समुद्रतट पर स्थित सोमनाथ मंदिर में चुंबकशक्ति का उपयोग कर, शिवलिंग को अधर में (बिना आधार का) रखा गया था । कोणार्क का सूर्यमंदिर बहुत भव्य था । इस मंदिर में चुंबकशक्ति का उपयोग कर, सूर्य की प्रतिमा स्थापित की गई थी । मंदिर की चुंबकशक्ति का प्रभाव समुद्र में चलनेवाले जलयानों पर भी दिखाई पडता था ।

 

प्राचीन शिवमंदिरों की विशेषताएं !

प्राचीन शिवमंदिरों की रचना प्राकृतिकरूप से वातानुकूलित (एयर कंडिशनिंग) मिलती है । मंदिर का गर्भगृह गहरे भूमि में बना होता है ।

१. सूर्य-किरणों मे अनुसार रचना

वेदान्त, योगशास्त्र के अतिरिक्त, भौतिकशास्त्र का भी देवालय-निर्माण में उपयोग दिखाई देता है । कुछ देवालयों में उत्तम दिक्-बंध (मूर्ति पर एक निश्‍चित दिन ही सूर्य की पहिली किरण पडे, ऐसी मंदिर-रचना) किया हुआ दिखाई देता है । किसी-किसी देवालय के सामने ऐसे छोटे-छोटे झरोखे हैं कि किसी भी ऋतु में सूर्य की पहली किरण मूर्ति पर पडती है । पुणे के पास स्थित यवत के समीप के टीले पर ऐसा शिवमंदिर है । कोणार्क के सूर्यमंदिर में गढे हुए चक्रों की विशेषता यह है कि ये केवल सूर्य-रथ के पहिए अथवा शिल्प नहीं हैं । इनके धुरों की छाया मंदिर की भीत पर इस प्रकार पडती है कि उनसे मास (महीना), तिथि और समय का अचूक ज्ञान होता है ।

२. वेरूल

वास्तुशास्त्र की दृष्टि से वेरूल की कैलास गुफाएं अद्भुत हैं । ये, पर्वतशिखर के नीचे एक शिला को काटकर बनाई गई हैं । यह करते समय उस समय के शिल्पियों ने किन-किन बातों का ध्यान रखा होगा, कौन-से उपकरणों का उपयोग किया होगा, उस समय मापने की कौन-सी पद्धति थी और उन्होंने यह कार्य कैसे किया होगा, इन बातों की हम कल्पना भी नहीं कर सकते, इतने ये भव्य हैं ।

३. नादशास्त्र के आधार पर निर्मित मंदिर के स्तंभ

कन्याकुमारी देवालय के एक ओर सप्तस्वरों का शिलास्तंभ है, तो दूसरी ओर मृदंगध्वनि का स्तंभ है । शिलास्तंभ (पत्थर का खंभा) से विशिष्ट नाद (ध्वनि) ही निकले, इसके लिए इसकी परिधि (घेरा) कितनी रखनी पडेगी, पत्थर को काटकर कितना पोला करना पडेगा, इन सब बातों का अचूक गणित और विज्ञान है ।

४. हेमाडपंती देवालय

गढे हुए पत्थर एक-दूसरे में बैठाकर बनाया गया मंदिर, भवननिर्माण कौशल्य का अद्भुत प्रकार है । यहां ऐसी शिल्परचना है कि जल के स्थान पर भूमि होने का भ्रम होता है । अगस्ति संहिता में सोने का पानी चढाने की विद्या (गोल्ड प्लेटिंग) बताई गई है ।’ महाभारत में इसका उल्लेेख है ।

– डॉ. पद्माकर विष्णु वर्तक, मासिक ‘भाग्यनिर्णय’

संदर्भ : दैनिक सनातन प्रभात

 

भवन जिस विचार अथवा भाव से बनाया
जाता है, उसमें वैसी विचार-तरंगें उत्पन्न होती हैं !

१. धनी लोगों को अपने धन का बहुत गर्व होता है । वे धन के बल पर ऊंचे-ऊंचे भवन बनवाते हैं । ये भवन देखनेयोग्य होते हैं । परंतु, वहां से जानेवाले कुछ लोगों को यह भवन अद्भुत लगता है, तो कुछ को इससे इर्ष्या होती है । भवन जिस उद्देश्य अथवा भाव से बनवाया गया होता है, उसमें वैसी विचार-तरंगें होती हैं, जो बाहर भी प्रक्षेपित होती हैं ।

२. देवालय के विषय में भी ऐसा होता है । आयकर बचना चाहिए, बेटा होना चाहिए और अन्य सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए बनाए गए देवालयों में भी ऐसी विचार-तरंगें होती हैं । इसलिए, वहां जाने पर आनंद का अनुभव नहीं होता ।

३. काशी हिन्दू विश्‍वविद्यालय के पास संगमरमर से बना विशाल शिवमंदिर है । वह देखनेयोग्य है । परंतु, उसमें स्थापित देवतामूर्ति की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता । वहां विशेष भक्तिभाव से पूजा भी नहीं होती । परंतु, हेमाडपंथी देवालय और चारधाम के देवालय सहस्रों वर्ष से खडे हैं और वहां जाने पर लोगों को आनंद होता है ।’

– परम पूज्य पांडे महाराज (दिशाचक्र, पृष्ठ क्र. ९९-१००)
संदर्भ : दैनिक सनातन प्रभात

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