धर्मशास्त्र का सहारा अपने स्वार्थ के लिए लेेनेवाला समाज !
आद्य शंकराचार्य ने एक ३० वर्ष के युवक को संन्यास की दीक्षा दी । उसके पिता ७५ वर्ष के थे । उन्हें यह बात अनुचित लगी । उन्होंने उनसे परिवाद (शिकायत) किया ।
युवक के पिता : आपने यह क्या किया ? यह कैसा संन्यास ? मेरा बेटा अभी गृहस्थाश्रम में भी नहीं गया है; बाद में वानप्रस्थाश्रम आएगा । ७० वर्ष के उपरांत संन्यास लिया जाता है, यह बात धर्मशास्त्र कहता है । आप शास्त्र के विरुद्ध कार्य कर रहे हैं । शास्त्र की आज्ञा का उल्लंघन कर रहे हैं । आप हमारा वैदिक धर्म मिट्टी में मिला रहे हैं ।
शंकराचार्य शांत रहकर उनकी सब बातें सुनते रहे । पिता का बोलना समाप्त होने पर उन्होंने कहा, आपका कहना उचित है । मैैं समझौता करने के लिए तैयार हूं ।
पिता (चकित होकर) पूछता है : इसका अर्थ ?
शंकराचार्य : मैैं आपके लडके को संन्यास की दीक्षा नहीं दूंगा । आपने ७५ वर्ष पूरे कर लिए हैं । आप संन्यास लीजिए । मैैं आपको यहां से नहीं जाने दूंगा ।
पिता (घबराकर) कहता है : मैं संन्यास कैसे ले सकता हूं ? अभी सहस्रों काम अधूरे पडे हैं । उन्हें पूरा करने के पश्चात ही संन्यास ले सकूंगा ।
शंकराचार्य : जब मृत्यु आएगी, तब यमराज नहीं पूछेंगे कि कितने काम शेष हैं ? सब काम वैसे ही रह जाएंगे और मृत्यु आपको उठा ले जाएगी । आप बच्चे को संन्यास से दूर रखने के लिए शास्त्र का आधार ले रहे हैं; अपने संन्यास के लिए शास्त्र का आधार क्यों नहीं लेते ? शास्त्र के अनुसार आचरण क्यों नहीं करते ? संन्यास क्यों नहीं लेते ? आप शास्त्र की आज्ञा का उल्लंघन क्यों कर रहे हैं ?
इस प्रकार हम देखते हैं; समाज में शास्त्रवचनों का उपयोग स्वार्थ के लिए, मूर्खता का विस्तार करने के लिए किया जाता है । शास्त्र से लोग अपना स्वार्थ, अपना संकुचित उद्देश्य पूरा करने का प्रयत्न करते हैं ।
संदर्भ : मासिक, घनगर्जित
Satay vachan
ये बहुत अच्छा लगा कि शास्त्रों को अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल नहीं करना चाहिए