हिन्दू धर्म और भारतीय संस्कृति में उच्च देवताओं की उपासना और उनके विविध त्योहार और उत्सव हैं । उसी प्रकार उसमें कनिष्ठ देवताओं की भी उपासना है । सूर्य, चंद्र, अग्नि, पवन, वरुण और इंद्र आदि प्रमुख कनिष्ठ देवता हैं । मनुष्य तथा प्राणिमात्र के जीवन में इन कनिष्ठ देवताओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है । भारतीय संस्कृति सबके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना सिखाती है । उस अनुषंग से सूर्यदेवता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु रथसप्तमी त्योहार मनाया जाता है । इस दिन सूर्योपासना करनी चाहिए ।
माघ मास (महीने की) शुक्ल सप्तमी को रथसप्तमी मनाई जाती है । इस दिन से सूर्यदेव अपने रथ में बैठकर यात्रा करते हैं । इस रथ में सात घोडे होते हैं; इसलिए रथसप्तमी शब्द का उपयोग किया जाता है । जिस सूर्य के कारण अंधेरा नष्ट होता है और चराचर में नया तेज, नया जीवन प्राप्त होता है, उस भास्कर की यह पूजा है । यह प्रकाश की, सूर्यदेवता की पूजा है । स्त्रियां संक्रांति के अवसर पर जो हलदी कुमकुम करती हैं, रथसप्तमी उसका अंतिम दिन माना जाता है ।
(संदर्भ : श्रीधर संदेश, जनवरी २०१४)
रथसप्तमी का महत्त्व
सर्व संख्याओं में सात अंक का महत्त्व विशेष है । सात अंक में त्रिगुणों की मात्रा संतुलित होती है तथा सत्त्वगुण की वृद्धि के लिए आवश्यक चैतन्य, आनंद इत्यादि सूक्ष्म-तरंगें ग्रहण करने की विशेष क्षमता होती है । सप्तमी तिथि को शक्ति और चैतन्य का सुंदर संगम होता है । इस दिन विशिष्ट देवता का तत्त्व और शक्ति, आनंद एवं शांति की तरंगे २० प्रतिशत अधिक मात्रा में कार्यरत होती हैं । रथसप्तमी को निर्गुण सूर्य की (अतिसूक्ष्म सूर्यतत्त्व की) तरंगें अन्य दिनों की तुलना में ३० प्रतिशत अधिक मात्रा में कार्यरत होती हैं ।
रथसप्तमी सूर्यदेव का जन्मदिन !
माघ शुक्ल पक्ष सप्तमी को रथसप्तमी कहते हैं । इस दिन महर्षि कश्यप और देवमाता अदिती को सूर्यदेव पुत्र के रूप में प्राप्त हुए ! सूर्यनारायण भगवान श्रीविष्णु का एक रूप हैं । संपूर्ण विश्व को अपने महातेजस्वी स्वरूप से प्रकाशमय करनावाले सूर्यदेव के कारण पृथ्वीपर जीवन अस्तित्व में है ।
रथसप्तमी का त्योहार सूर्य के उत्तरायण में मार्गक्रमण करने का सूचक है !
रथसप्तमी का त्योहार सूर्य के उत्तरायण में मार्गक्रमण करने का सूचक है । उत्तरायण अर्थात उत्तर दिशा से मार्गक्रमण करना । उत्तरायण में सूर्य उत्तर दिशा की ओर झुका होता है ।
श्री सूर्यनारायण अपना रथ उत्तर गोलार्धात में मोड रहे हैं, ऐसी स्थिति में रथसप्तमी दर्शाई जाती है । रथसप्तमी का त्योहार किसानों के लिए बोआई के तथा दक्षिण भारत में धीरे धीरे बढनेवाले तापमान का दर्शक होता है तथा वसंत ऋतु समीप आने का सूचक होता है ।
कठिन दिनों की सिद्धता करने का स्मरण करवानेवाला त्योहार !
रथसप्तमी को आंगन की तुलसी के पास चूल्हे पर मिट्टी के पात्र में खीर पकाई जाती है तथा वह उफनने तक पकाते हैं । उसमें वह खीर जलती भी है । इस प्रकार चूल्हे पर जली हुई खीर प्रसाद रूप में खाने का आनंद अलग ही है । वर्ष के सर्व दिन समान नहीं होते । कभी कभी जला हुआ अन्न भी खाना पड सकता है, उसकी तैयारी होनी चाहिए, इसका स्मरण करवानेवाला यह त्योहार है ।
सूर्योपासना का महत्त्व तथा अन्य जाणकारी
सूर्य की उपासना से जीव को स्वयं का सूक्ष्म-तेजतत्त्व बढाने का अवसर होता है । इसके लिए जीव को तेजतत्त्व के कारक की उपासना करना उपयुक्त होता है । उसी प्रकार गायत्रीमंत्र और सूर्य के विविध मंत्रों का पुरश्चरण करना फलदायी होता है । सूर्योपासना करने से जीव के मन की एकाग्रता बढती है । नेत्र तेजतत्त्व से संबंधित होते हैं । सूर्योपासना करने से (तेजतत्त्व की उपासना) जीव को दिव्यदृष्टि प्राप्त होती है ।
भारतीय संस्कृति और हिन्दू धर्म में सूर्य की उपासना का अधिक महत्त्व है । प्रतिदिन प्रातः सूर्य को अर्घ्य देने से सूर्य को अंधःकार नष्ट कर संसार को प्रकाशमय करने का बल प्राप्त होता है । (उपासना के कारण मूर्ति जागृत होती है, यह वैसा है ।)
१. सूर्योपासना करने से जीव की चंद्रनाडी बंद होकर सूर्यनाडी शीघ्र जागृत होने में सहायता होती है । चंद्र की उपासना की तुलना में सूर्य की उपासना अधिक श्रेष्ठ है ।
२. सूर्य की उपासना करने से सात्त्विकता ग्रहण करने की क्षमता ३० प्रतिशत और चैतन्य ग्रहण करने की क्षमता २० प्रतिशत बढती है ।
३. प्रातः सूर्यदेव को अर्घ्य देकर केवल उनका दर्शन करने से वे प्रसन्न होते हैं, यह उनकी उपासना का एक भाग ही है ।
४. ऊगते सूर्य की ओर देखकर त्राटक करने से नेत्रों की क्षमता बढती है और नेत्रज्योति अधिक प्रबल बनती है ।
५. पंचतत्त्वों की उपासना में सूर्योपासना एक (तेजतत्त्व की उपासना) महत्त्वपूर्ण चरण है ।
६. योगासनों में सूर्यनमस्कार व्यायाम का एक महत्त्वपूर्ण प्रकार है । इसमें स्थूल शरीर का उपयोग कर सूर्यदेव को नमस्कार करते हैं । न्यूनतम २० वर्ष प्रतिदिन नियमित सूर्यनमस्कार करने से सूर्यदेवता प्रसन्न होते हैं । सूर्यनमस्कार करने से शरीर में स्थित अनिष्ट शक्तियों के स्थान नष्ट होने में सहायता मिलती है ।
सूर्य के रथ में सूर्यलोक, नक्षत्रलोक, ग्रहलोक, भुवलोक, नागलोक, स्वर्गलोक और स्वर्गलोक के निकट स्थित शिवलोक आदि सप्त लोकों में भ्रमण करने का सामर्थ्य है । रथ की गति आवश्यकतानुसार परिवर्तित होती है । सूर्यदेवता की इच्छानुसार यह रथ वायुमंडल में उडान भरता है । रथ के सुनहरे पहियों पर संपूर्ण सूर्य का चित्र बना हुआ है । उस चित्र से सूर्य का तेज और तेजतत्त्व लगभग ३० प्रतिशत प्रक्षेपित होता है । श्रीविष्णु के कृपाशीर्वाद से और तेजतत्त्व के प्रक्षेपण के कारण रथ के आसपास सुरक्षा कवच बनता है । इसलिए अनिष्ट शक्तियां सूर्यदेव के कार्य में बाधाएं उत्पन्न नहीं कर पाती । सूर्यदेवता निरंतर इस रथ में विराजमान होते हैं । रथ उनका वाहन ही है । जिस प्रकार देवालय में भगवान के कारण देवालय को महत्त्व प्राप्त होता है, उसी प्रकार का महत्त्व रथ को है । इसलिए रथसप्तमी को सूर्य की उपासना के साथ ही प्रतीकात्मक रथ की भी पूजा होती है ।
रंगोली अथवा चंदन से पीढे पर सात अश्वोंवाला सूर्यनारायण का रथ, अरुण सारथी और रथ में सूर्यनारायण बनाते हैं । सूर्यनारायण की पूजा करते हैं । आंगन में उपले जलाकर उस पर एक छोटे कुल्हड में दूध उफनने तक उबालते हैं; अर्थात अग्नि को समर्पित होने तक रखते हैं । तत्पश्चात शेष दूध का प्रसाद सभी को वितरित करते हैं ।
सूर्य के सारथी का नाम अरुण है । उसमें सूर्य के ४० प्रतिशत गुण हैं । वह केवल एक आंख से देख सकता है । एकत्व की ओर जाना और प्राप्त परिस्थिति में अच्छे से सेवा करना, यह गुण उससे सीखने को मिलते हैं ।
स्वर्गलोक के निकट सूक्ष्म-सूर्यलोक है । सूक्ष्म-सूर्यलोक में पंचमहाभूतों में से सूक्ष्म-तेजतत्त्व की मात्रा ५० प्रतिशत से अधिक होती है । दिव्य प्रकाश, अग्नि और अग्नि की ज्वाला दिखाई देना और उष्णता का भान होना तेज का स्थूलरूप है । उनकी अनुभूति सूर्यलोक में होती है । अनेक जीवों का आध्यात्मिक स्तर ५० प्रतिशत से अल्प होता है अतः वे सूर्यलोक में नहीं जा पाते । आध्यात्मिक स्तर ५० प्रतिशत से अल्प हो तो तेजतत्त्व की उपासना नहीं कर सकते । तेजतत्त्व का स्थूलरूप, अर्थात दिव्य प्रकाश, अग्नि और उष्णता सहन नहीं होती । सूर्यलोक में स्थान प्राप्त करने के लिए सूर्यदेवता के गुण ५० प्रतिशत से अधिक और जीव का आध्यात्मिक स्तर न्यूनतम ५० प्रतिशत होना आवश्यक है ।
(उक्त जानकारी का टंकलेखन करते समय मुझे सूर्यलोक के सूक्ष्म दर्शन हुए । वहां पीले और लाल रंग का प्रकाश दिखाई दे रहा था । सूर्यलोक के निकट जाने पर सर्वत्र लाल रंग की बडी ज्वालाएं दिखाई दीं । मुझे वहां के तप्त वातावरण से कष्ट नहीं हुआ । आगे जानेपर मुझे सूर्यदेव का स्वर्ण महल दिखाई दिया । उसमें ऊगते सूर्य का चित्र बना हुआ स्वर्ण सिंहासन दिखाई दिया ।
– ईश्वर (कु. मधुरा भोसले के माध्यम से, ११.२.२००५, सायंकाल ७.०७ से ७.४०)
१. सूर्योपासना का महत्त्व
भारतीय संस्कृति और हिन्दू धर्म में सूर्य की उपासना का अधिक महत्त्व है । प्रतिदिन प्रातः सूर्य को अर्घ्य देने से सूर्य को अंधःकार नष्ट कर संसार को प्रकाशमय करने का बल प्राप्त होता है । (उपासना के कारण मूर्ति जागृत होती है, यह वैसा है ।)
१. सूर्योपासना करने से जीव की चंद्रनाडी बंद होकर सूर्यनाडी शीघ्र जागृत होने में सहायता होती है । चंद्र की उपासना की तुलना में सूर्य की उपासना अधिक श्रेष्ठ है ।
२. सूर्य की उपासना करने से सात्त्विकता ग्रहण करने की क्षमता ३० प्रतिशत और चैतन्य ग्रहण करने की क्षमता २० प्रतिशत बढती है ।
३. प्रातः सूर्यदेव को अर्घ्य देकर केवल उनका दर्शन करने से वे प्रसन्न होते हैं, यह उनकी उपासना का एक भाग ही है ।
४. ऊगते सूर्य की ओर देखकर त्राटक करने से नेत्रों की क्षमता बढती है और नेत्रज्योति अधिक प्रबल बनती है ।
५. पंचतत्त्वों की उपासना में सूर्योपासना एक (तेजतत्त्व की उपासना) महत्त्वपूर्ण चरण है ।
६. योगासनों में सूर्यनमस्कार व्यायाम का एक महत्त्वपूर्ण प्रकार है । इसमें स्थूल शरीर का उपयोग कर सूर्यदेव को नमस्कार करते हैं । न्यूनतम २० वर्ष प्रतिदिन नियमित सूर्यनमस्कार करने से सूर्यदेवता प्रसन्न होते हैं । सूर्यनमस्कार करने से शरीर में स्थित अनिष्ट शक्तियों के स्थान नष्ट होने में सहायता मिलती है ।
२. सूर्य का रथ और उसका पूजन
सूर्य के रथ में सूर्यलोक, नक्षत्रलोक, ग्रहलोक, भुवलोक, नागलोक, स्वर्गलोक और स्वर्गलोक के निकट स्थित शिवलोक आदि सप्त लोकों में भ्रमण करने का सामर्थ्य है । रथ की गति आवश्यकतानुसार परिवर्तित होती है । सूर्यदेवता की इच्छानुसार यह रथ वायुमंडल में उडान भरता है । रथ के सुनहरे पहियों पर संपूर्ण सूर्य का चित्र बना हुआ है । उस चित्र से सूर्य का तेज और तेजतत्त्व लगभग ३० प्रतिशत प्रक्षेपित होता है । श्रीविष्णु के कृपाशीर्वाद से और तेजतत्त्व के प्रक्षेपण के कारण रथ के आसपास सुरक्षा कवच बनता है । इसलिए अनिष्ट शक्तियां सूर्यदेव के कार्य में बाधाएं उत्पन्न नहीं कर पाती । सूर्यदेवता निरंतर इस रथ में विराजमान होते हैं । रथ उनका वाहन ही है । जिस प्रकार देवालय में भगवान के कारण देवालय को महत्त्व प्राप्त होता है, उसी प्रकार का महत्त्व रथ को है । इसलिए रथसप्तमी को सूर्य की उपासना के साथ ही प्रतीकात्मक रथ की भी पूजा होती है ।
रंगोली अथवा चंदन से पीढे पर सात अश्वोंवाला सूर्यनारायण का रथ, अरुण सारथी और रथ में सूर्यनारायण बनाते हैं । सूर्यनारायण की पूजा करते हैं । आंगन में उपले जलाकर उस पर एक छोटे कुल्हड में दूध उफनने तक उबालते हैं; अर्थात अग्नि को समर्पित होने तक रखते हैं । तत्पश्चात शेष दूध का प्रसाद सभी को वितरित करते हैं ।
३. सूर्य के सारथी के गुण
सूर्य के सारथी का नाम अरुण है । उसमें सूर्य के ४० प्रतिशत गुण हैं । वह केवल एक आंख से देख सकता है । एकत्व की ओर जाना और प्राप्त परिस्थिति में अच्छे से सेवा करना, यह गुण उससे सीखने को मिलते हैं ।
४. सूर्यलोक
स्वर्गलोक के निकट सूक्ष्म-सूर्यलोक है । सूक्ष्म-सूर्यलोक में पंचमहाभूतों में से सूक्ष्म-तेजतत्त्व की मात्रा ५० प्रतिशत से अधिक होती है । दिव्य प्रकाश, अग्नि और अग्नि की ज्वाला दिखाई देना और उष्णता का भान होना तेज का स्थूलरूप है । उनकी अनुभूति सूर्यलोक में होती है । अनेक जीवों का आध्यात्मिक स्तर ५० प्रतिशत से अल्प होता है अतः वे सूर्यलोक में नहीं जा पाते । आध्यात्मिक स्तर ५० प्रतिशत से अल्प हो तो तेजतत्त्व की उपासना नहीं कर सकते । तेजतत्त्व का स्थूलरूप, अर्थात दिव्य प्रकाश, अग्नि और उष्णता सहन नहीं होती । सूर्यलोक में स्थान प्राप्त करने के लिए सूर्यदेवता के गुण ५० प्रतिशत से अधिक और जीव का आध्यात्मिक स्तर न्यूनतम ५० प्रतिशत होना आवश्यक है ।
(उक्त जानकारी का टंकलेखन करते समय मुझे सूर्यलोक के सूक्ष्म दर्शन हुए । वहां पीले और लाल रंग का प्रकाश दिखाई दे रहा था । सूर्यलोक के निकट जाने पर सर्वत्र लाल रंग की बडी ज्वालाएं दिखाई दीं । मुझे वहां के तप्त वातावरण से कष्ट नहीं हुआ । आगे जानेपर मुझे सूर्यदेव का स्वर्ण महल दिखाई दिया । उसमें ऊगते सूर्य का चित्र बना हुआ स्वर्ण सिंहासन दिखाई दिया ।
– ईश्वर (कु. मधुरा भोसले के माध्यम से, ११.२.२००५, सायंकाल ७.०७ से ७.४०)
सूर्य के गुण
नित्योपासना
ऋषियों के समान सूर्यदेव निरंतर नारायण की उपासना करते हैं ।
अनुशासन
सूर्यदेव समय का यथार्थ पालन करते हैं ।
त्याग
सूर्य स्वयं का तेज, ऊर्जा और चैतन्य स्वयं के लिए मर्यादित न रखते हुए अन्यों को देते हैं । अन्य कनिष्ठ देवताओं की तुलना में सूर्य की चैतन्य ग्रहण एवं प्रक्षेपित करने की क्षमता सर्वाधिक होती है ।
समष्टिभाव
सूर्य अपना तेज और ऊर्जा अपने लोक तक मर्यादित न रखते हुए विविध लोकों के जीवों को भी प्रक्षेपित करते हैं । उसके लिए वे निरंतर भ्रमण करते रहते हैं । समष्टि भाव अधिक होने के कारण उनमें उच्च देवताओं के २० प्रतिशत गुण हैं ।
ज्ञानदान और सूक्ष्म मार्गदर्शन करना
ज्ञान अर्थात प्रकाश । प्रकाश ज्ञान का एक रूप है । सूर्य ज्ञान के संदर्भ में भी कार्य करते हैं । अतः उनसे सूक्ष्म ज्ञानतरंगें और ज्ञानप्रकाश तरंगे प्रक्षेपित होती रहती हैं । इन ज्ञान तरंगों के माध्यम से वे ३० प्रतिशत तक ज्ञान प्रदान कर सकते हैं । कर्ण को सूर्यदेवता प्रतिदिन दर्शन देते थे और सूक्ष्म मार्गदर्शन करते थे ।
उत्तम गुरु
सूर्य शास्त्र और शस्त्रकला दोनों में निपुण है । ये दोनों कलाएं अवगत करने के लिए रुद्रावतार मारुति (हनुमानजी) सूर्यलोक में गए थे । उस समय सूर्यदेव ने उत्तम गुरु के रूप में उनका मार्गदर्शन किया । सूर्यदेव अन्यों को ज्ञानप्रकाश देकर उनके जीवन का स्थूल और सूक्ष्म अहंकाररूपी तिमिर नष्ट करते हैं ।
उत्तम पिता
सूर्यदेव ने समय समय पर अपने पुत्रों और पुत्रियों के लिए आवश्यक सर्व कर्तव्य पूर्ण किए हैं । ब्रह्मांड के सर्व जीवों की ओर वे पिता की दृष्टि से देखते हैं और उनकी सहायता करते हैं ।
व्यापकत्व
सूर्यदेव निरपेक्ष रूप से ब्रह्मांड के विविध जीवों को तेज, ऊर्जा और चैतन्य देते हैं ।
समभाव
सूर्य सर्व जीवों की ओर समदृष्टि से देखते हैं । वे गुणग्राहक हैं । इसलिए वे किसी पर अन्याय नहीं करते । उदाहरणार्थ, मारुति (हनुमानजी) में शनिदेव की तुलना में शिष्य के अधिक गुण होने के कारण सूर्यदेव ने उन्हें शिष्य रूप में स्वीकारा तथा ज्ञान एवं विविध विद्याएं प्रदान कीं ।
क्षात्रभाव
इंद्रदेव सभी कनिष्ठ देवताओं के प्रमुख हैं । यद्यपि सूर्यदेवता इंद्र के आधिपत्य में हैं, तथापि इंद्र द्वारा अयोग्य निर्णय करने पर वे उनका विरोध करते हैं और इंद्र की अयोग्य आज्ञा का पालन नहीं करते । आगे आनेवाले संकट काल में (धर्मयुद्ध के समय) कनिष्ठ देवताओं में सूर्यदेवता क्षात्रवीर और धर्मवीर साधकों को तथा धर्म के पक्ष में लडनेवालों को सर्वाधिक सहायता करेंगे । कनिष्ठ देवताओं में सूर्यदेवता में सर्वाधिक सात्त्विकता, व्यापकत्व, त्याग, समष्टि भाव और क्षात्रभाव होता है ।
– ईश्वर (कु. मधुरा भोसले के माध्यम से, १०.२.२००५, सुबह ६.२० से ९.०९)
प्रभु श्रीराम सूर्यवंशी होने के कारण रामराज्य की स्थापना कर पाए
सूर्य के गुणों के कारण उनके राज्य में (लोक में) पितृशाही होती है । सूर्योपासक में उक्त गुण होने पर ही उसे सूक्ष्म-सूर्यलोक में स्थान मिलता है । सूर्य की उपासना करनेवालों को और जिनमें सूर्य के गुण होते हैं, उन्हें सूर्यवंशी संबोधित किया जाता है । प्रभु श्रीराम सूर्यवंशी थे । इसलिए वे आदर्श पिता और आदर्श पुत्र होने के साथ ही रामराज्य की (पितृशाही की) स्थापना कर पाए ।
– ईश्वर (कु. मधुरा भोसले के माध्यम से, १०.२.२००५, सुबह ६.२० सेे ९.०९)
भारत सूर्य का एक नाम होना
सूर्यदेव ऋषिमुनि और मानव सभी के लिए पूजनीय हैं । हिन्दू धर्म में सूर्य को विशेष महत्त्व है । भारतीय पंचांग में भी चंद्र की अपेक्षा सूर्य को अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है । भारत भी सूर्य का एक नाम है । स सूर्य अर्थात तेज का बीजाक्षर है ।
– ईश्वर (कु. मधुरा भोसले के माध्यम से, १०.२.२००५, सुबह ६.२० सेे ९.०९)
भारतीय संस्कृति में विभिन्न त्योहारों को मनाने के पीछे के गहरा अर्थ समझकर हम उन्हें मनाने से अधिक आध्यात्मिक लाभ उठा सकते हैं। ऐसी ही उपयोगी जानकारी जानने के लिए…
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शरीरबल, मनोबल और आत्मबल बढानेवाले सूर्यनमस्कार !
रथसप्तमी त्योहार पर सूर्यदेव की पूजा बताई है । आरोग्यं भास्करात् इच्छेत् । अर्थात सूर्य से स्वास्थ्य की कामना करनी चाहिए, ऐसा शास्त्रवचन है । सूर्य का तेज अपने में आने के लिए सूर्योपासना है । यदि बालक, समर्थ रामदासस्वामी द्वारा बताए गए साष्टांग सूर्यनमस्कार नियमित रूप से करें, तो गुंडों का आक्रमण करने का साहस नहीं होगा । सूर्यनमस्कार में शरीरबल और मनोबल बढाने का सामर्थ्य है तथा ये मंत्रोसहित किए जाएं, तो आत्मबल भी बढता है ।
जीवन का मूल स्रोत सूर्य !
सूर्य जीवन मूल स्रोत है । सूर्यकिरणों से शरीर के लिए आवश्यक ‘ड’ जीवनसत्त्व (विटामिन डी) मिलता है । काल की गणना सूर्य पर ही निर्भर है । सूर्य ग्रहों के राजा हैं तथा उनका स्थान नवग्रहों में है । वह स्थिर है तथा अन्य सर्व ग्रह उनकी परिक्रमा करते हैं । सूर्य स्वयंप्रकाशी है तथा अन्य ग्रह उससे प्रकाश लेते हैं ।
ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से रवि का (अर्थात सूर्य का) महत्त्व
ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से रवि (अर्थात सूर्य) आत्माकारक है । मनुष्य के शरीर में स्थित प्राण, आत्मिक बल और चैतन्यशक्ति का बोध रवि से होता है । अर्थात व्यक्ति की जन्मकुंडली में रवि जितना बलवान होता है उतनी उस व्यक्ति की जीवनशक्ति और रोग प्रतिकारक शक्ति उत्तम होती है । राजा, प्रमुख, सत्ता, अधिकार, कठोरता, तत्त्वनिष्ठता, कर्तृत्व, सम्मान, कीर्ति, स्वास्थ्य, चिकित्साशास्त्र इत्यादि का कारक रवि है । सूर्यदेव के रथ के सप्त अश्व सप्ताह के सात दिन (वार) दर्शाते हैं । रथ के बारह पहिए बारह राशियां दर्शाते हैं ।
– श्री. राज धनंजय कर्वे (ज्योतिष प्रवीण, आयु १९ वर्ष), फोंडा, गोवा. (२५.१.२०१७)
रथसप्तमी के विषय में प्राप्त सूक्ष्म ज्ञान
संदर्भ ग्रंथ
उपरोक्त जानकारी सनातन के ‘त्योहार मनानेकी उचित पद्धतियां एवं अध्यात्मशास्त्र’ ग्रंथ में दी गई है । रथसप्तमी समान अन्य त्योहारों की जानकारी देनेवाला यह ग्रंथ अवश्य पढें ।
रथसप्तमी को की जानेवाली सूर्यदेव की पूजाविधि देखें !
रथसप्तमी को अरुणोदय के समय स्नान करना चाहिए । सूर्यदेव के १२ नामों का उच्चारण करते हुए न्यूनतम १२ सूर्यनमस्कार करने चाहिए । पीढे पर रथ में बैठे हुए सूर्यनारायण की आकृति बनाकर उसकी पूजा करें । उन्हें लाल पुष्प चढाएं । सूर्यदेव को प्रार्थना कर आदित्यहृदयस्तोत्रम, सूर्याष्टकम औरणि सूर्यकवचम आदि में से एक स्तोत्र का पाठ भक्तिभाव से करें अथवा सुनें । रथसप्तमी को कोई भी व्यसन न करें । रथसप्तमी के दूसरे दिन से प्रतिदिन सूर्य से प्रार्थना करें और सूर्यनमस्कार करें । इससे उत्तम स्वास्थ्य प्राप्त होता है ।