ग्रहण के विषय में फैलाई जानेवाली भ्रांतियां

‘प्रत्येक विषय कुछ विचित्र ढंग से प्रस्तुत करने का तथा धर्मश्रद्धाओं का भंजन करने का धंदा करनेवाले कुछ लोग तथाकथित अंधश्रद्धा निर्मूलन का कार्य विगत अनेक वर्षों से कर रहे हैं । इनका कहना है कि हिन्दू संस्कृति में, अध्यात्म के विषय में जो कुछ कहा गया है, सब बकवास है और इसलिए, उन्हें छोड देना चाहिए । ये लोग यह बात अन्य लोगों के मन पर अंकित करने के लिए अथक प्रयास भी करते हैं । कोरोना के कारण शारीरिक स्तर पर तो संचारबंदी है, पर यह मन और विचारों के लिए लागू नहीं की जा सकती । इसलिए, ये लोग अपना भ्रामक विचार समाज में फैला सकते हैं । इसमें बुरा कुछ नहीं है; क्योंकि सबको अपने विचारों का प्रचार करने का संवैधानिक अधिकार मिला हुआ है; परंतु क्या उनके भ्रामक विचारों के आधार पर हमें अपना मत बनाना चाहिए ? इस विषय में हमें विचार करना चाहिए ।

ग्रहण के विषय में अनेक बातें सामाजिक प्रचारमाध्यमों में घूमती रहती हैं । उनमें – ‘ग्रहणकाल में हवा अशुद्ध होती है’, ‘ग्रहणकाल में सोना नहीं चाहिए’ आदि बातें केवल गप हैं’, ऐसी आलोचना कुछ लोग करते हैं । वास्तविक, यह सब कहते समय जो प्रमाण दिए जाते हैं, उससे उनका बौद्धिक दिवालियापन ही सिद्ध होता है । ऐसे लोगों पर दया आती है ।

 

१. ग्रहणकाल में वातावरण में रज-तम गुण प्रबल होना

कोई बात क्यों कही गई है, इसपर सोचना चाहिए । ‘ग्रहणकाल में हवा अशुद्ध होती है’, ऐसा कहा जाता है । इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि जिस प्रकार भोपाल गैस दुर्घटना के पश्‍चात हवा-पानी अशुद्ध हुआ था, वैसा ग्रहणकाल में होता है । इसका अर्थ यह है कि ‘ग्रहणकाल में रज-तम गुण बहुत (हर एक बात दूरबीन से देखनेवाले सत्त्व, रज, तम समझने का प्रयास न करें; क्योंकि रज-तम दूरबीन से देखने का विषय नहीं है ।) बढ जाता है । इसका वातावरण पर दुष्परिणाम होता है । इसलिए, ‘ग्रहणकाल में बांध कैसे ढंके जाएंगे ?’ इस प्रकार का प्रश्‍न उपस्थित करना, बचकानापन है ।

 

२. ग्रहण के पश्‍चात, सात्त्विक होने के लिए स्नान करने की आवश्यकता

ग्रहण समाप्त होने पर स्नान करने का उद्देश्य, ‘शरीर में बढा हुआ रज-तम दूर करना’ है । ऐसे लोगों को हिन्दू धर्मशास्त्र नहीं समझेगा, जो यह मानते हैं कि कपडे धोने की भांति ही शरीर धोना, अर्थात स्नान करना है । वास्तविक, हिन्दू धर्मशास्त्र स्नान को केवल ‘शरीरस्वछता’ की दृष्टि से नहीं देखता, अपितु ‘शरीर को पवित्र करने’ की दृष्टि से देखता है । स्वच्छता और पवित्रता में अंतर है । साबुन शरीर को स्वच्छ करता है, पवित्र नहीं । पवित्र करने का अर्थ है, रज-तम का आवरण दूर कर, सात्त्विकता बढाना । इसके लिए स्नान के समय, ‘पवित्र नदियों के जल से स्नान कर रहा हूं’, यह भाव रखने के लिए कहा जाता है ।

 

३. गर्भवती महिला की सात्त्विक संतानप्राप्ति के लिए सतर्कता

पाकिस्तान, अमेरिका आदि देशों का नाम बताकर कुछ पढे-लिखे मूर्ख प्रश्‍न करते हैं, ‘केवल भारतीय स्त्रियों को ग्रहण क्यों लगता है ?’ हिन्दू धर्मशास्त्र में संतान के विषय में उदात्त और व्यापक विचार किया गया है । यहां ‘संतान का केवल शरीर से हृष्ट-पुष्ट होना’, इतना संकुचित विचार नहीं, अपितु वह सात्त्विक भी होनी चाहिए, यह व्यापक विचार है । दिखने में हृष्ट-पुष्ट संतान रज-तमोगुणी हो सकती है । ऐसी संतान आगे समाज के लिए कष्टदायक हो सकती है । सात्त्विक और चरित्रवान संतान से अच्छे समाज का निर्माण होता है । इसलिए, ग्रहणकाल के रज-तम की प्रबलतावाले वातावरण से गर्भ को सुरक्षित रखने के लिए कहा जाता है कि ‘गर्भवती स्त्रियां ग्रहण न देखें’ ।

 

४. ग्रहणकाल साधना करने के लिए उत्तम

‘ग्रहणकाल साधना करने के लिए उत्तम है । इसलिए, इस काल में सोकर तमोगुण बढाने की अपेक्षा साधना कर आध्यात्मिक बल बढाना चाहिए, यह इस विचार का उदात्त हेतु है ।

 

५. जिन्हें अध्यात्मशास्त्र का रत्तीभर भी ज्ञान नहीं, ऐसे तथाकथित आधुनिकतावादी !

सब लोग जानते हैं कि ग्रहण खगोलीय घटना है; किंतु क्या इस घटना का वातावरण, शरीर और मन पर कोई विपरीत प्रभाव भी पडता है अथवा नहीं ? इस विषय में कोई जानकारी न होने पर भी सामाजिक प्रचारमाध्यमों में निराधार लेख लिखते रहने को क्या कहें ? आंखों से न दिखनेवाले कोरोना के लिए दिन में हजारों बार ४० सेकेंड हाथ धोते हुए जिन्हें कोई अडचन नहीं होती, जिन्हें अध्यात्मशास्त्र का रत्तीभर भी ज्ञान नहीं, ऐसे लोग ग्रहण के विषय में बकवास करते हैं ! ठीक है, इन बेचारों का भी दोष नहीं; क्योंकि ऐसा करने से ही उनकी दुकान चलती है और हिन्दू विरोधियों से उन्हें ‘फंडिंग’ (धन) मिलता है । फिर भी, हम सब हिन्दू समझदार हैं । हम इनके झांसे में न आएं और अपने महान हिन्दू धर्मशास्त्र का पालन करें, इतनी ही विनती है !’

– श्री. प्रशांत जुवेकर, जळगाव महाराष्ट्र

Leave a Comment