१. शुभ कर्म करनेवाले की कभी भी अधोगति नहीं होती !
‘न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति । – श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ६, श्लोक ४०
अर्थ : शुभ कर्म करनेवाले की कभी भी दुर्गति नहीं होती ।
२. मेरे निष्काम भक्त का योगक्षेम मैं चलाता हूं !
योगक्षेमं वहाम्यहम् । – श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ९, श्लोक २२
अर्थ : जो अनन्यभाव से मेरी निरंतर निष्काम उपासना करते हैं, उनका योगक्षेम मैं चलाता हूं ।
३. मेरे भक्त का कभी भी नाश नहीं होता !
न मे भक्तः प्रणश्यति । – श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ९, श्लोक ३१
अर्थ : मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता (अति दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरी भक्ति करेगा, तो उसे साधु मानना योग्य होगा; क्योंकि उसने उचित निश्चय किया है । वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है ।)
४. भक्त का मृत्युमयसंसार से मैं उद्धार करता हूं !
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् ।- श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १२, श्लोक ७
अर्थ : जो सभी कर्म मुझे अर्पित कर, मत्परायण होकर मुझ में अनन्यता से चित्त लगाते हैं, उनका मैं मृत्युमय संसार से उद्धार करता हूं ।
५. मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त करूंगा !
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥- श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १८, श्लोक ६६
अर्थ : सभी धर्मों का (धर्मों में बताए गए सभी कर्मों का) त्याग कर एक मेरी ही शरण में आओ । शोक मत करो, मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त करूंगा ।
साधनापथ पर चलनेवालों के लिए मोक्ष
का मार्गदर्शन करनेवाली भगवान् श्रीकृष्ण की सीख !
‘भगवान् श्रीकृष्ण ! नाम लेते ही मन आदर से तथा आनंद सेे भर जाता है । भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति मन में अत्यधिक आदर क्यों होता है ? उनके अप्रतिम सौंदर्य के कारण ? रासलीला के कारण ? बचपन से उन्होंने किए अनेक चमत्कारों के कारण ? सर्वज्ञता के कारण ? भगवान् विष्णु का सोलह कलाआें का पूर्णावतार होने के कारण ? नहीं ! भगवद्गीता के द्वारा उन्होंने दिए दिव्य ज्ञान के कारण ! वस्तुतः इस ज्ञान के लिए ‘दिव्य’, ‘अप्रतिम’, ‘अलौकिक’, अद्भुत ये शब्द भी पूरे नहीं पडते ।
भगवद्गीता की शिक्षा का आचरण कर स्वयं में विद्यमान ईश्वर को जागृत करें !
श्रीमद्भगवद्गीता अर्थात्जीवनदर्शन और मोक्षदर्शन !
‘श्रीमद्भगवद्गीता से यह ज्ञान मिलता है कि ‘जीवन को कैसे जीना चाहिए और कैसे नहीं ।’ वह मार्ग से भटके लोगों का मार्गदर्शन करती है तथा दुःखी-पीडित लोगों को आश्वस्त करती है । गीता में मा की ममता है; इसीलिए गीता ‘मां’ है । गीता के प्रत्येक शब्द में चैतन्य समाया हुआ है । गीता संन्यास, ज्ञान, कर्म, ध्यान, भक्ति इत्यादि योगमार्गों का मार्गदर्शन करनेवाला धर्मग्रंथ है ।
यूरोपीय विद्वानों ने पहचाना गीता का महत्त्व !
विश्व की १९२ भाषाआें में गीता का अनुवाद हुआ है । अनेक यूरोपीय तथा अमरीकी विद्वानों ने गीता की महिमा का मुक्त कंठ से यशोगान किया है । थोरो नामक पश्चिमी दार्शनिक से एक बार किसी ने प्रश्न किया, ‘‘आपका आचार-विचार इतना श्रेष्ठ कैसे ?’’ इस पर उन्होंने तत्काल उत्तर दिया, ‘‘मैं प्रतिदिन सवेरे उठकर भगवद्गीता पढता हूं ।’’
भगवद्गीता की शिक्षा ही भारतवर्ष को व विश्व को भी तार पाएगी !
गीता ज्ञानमय चैतन्य की शिक्षा है । अज्ञान, रज-तम प्रवृत्ति, दुःख तथा अन्याय के विरुद्ध लडने की वीरवृत्ति है । भगवद्गीता मानव में देवत्व जागृत करती है । आज राष्ट्र एवं धर्म की स्थिति दयनीय है और भारतीय हतबल हो गए हैं । भगवद्गीता की शिक्षा ही भारतवर्ष को एवं विश्व को भी तार पाएगी !’– (पू.) श्री. संदीप आळशी, रामनाथी आश्रम, गोवा. (२४.४.२०१४)
गीता में प्रतिपादित मोक्षप्राप्ति के विभिन्न मार्ग
‘अर्जुन को गीता का उपदेश’ मानवजाति को मोक्ष का मार्ग बताने का निमित्त था । गीता में रणनीति, अस्त्र-शस्त्रों का कुशल संचालन आदि विषयों की चर्चा ही नहीं है, किंतु मोक्षप्राप्ति के विभिन्न योगमार्ग बताए गए हैं ।
अ. सांख्ययोग : यह संन्यास का मार्ग है ।
आ. ध्यानयोग : इसमें, अकेले तथा गुप्तस्थान में रहकर ध्यान लगाने के लिए बताया है ।
इ. कर्मयोग : इसमें, स्वार्थ और फलप्राप्ति की इच्छा का त्याग कर कर्म करने के लिए बताया गया है ।
ई. भक्तियोग : इसमें, ईश्वरप्राप्ति को मानव का ध्येय बताया गया है ।
उ. विभूतियोग : इसमें, ईश्वर के सर्वव्यापी रूप की अनुभूति लेने के लिए कहा गया है । ऐसी स्थिति में, उपर्युक्त योगमार्गों में हिंसा को स्थान कहां है ?
संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘गीताज्ञानदर्शन’