सांख्ययोग व बुद्धियोग, इन मोक्षप्राप्ति के दो राजमार्गों में से बुद्धियोग

१.  तत्त्वज्ञान

बुद्धियोग, यह कर्मयोग है । कर्म करते समय बुध्दि कैसी हो, यह बात भगवान् श्रीकृष्ण ने निम्नानुसार बताई है

१ अ. फल की इच्छा न रखकर कर्म करना 

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥

– श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्‍लोक ४७

अर्थ : तुम्हें केवल कर्मों को करने का अधिकार है, उनके फलों पर नहीं; (इसलिए) कर्म करने में तुम्हारा उद्देश्य फलप्राप्ति न हो तथा कर्म न करने में भी आसक्ति न हो ।

१ आ. बुद्धियोग क्या है ?

यश-अपयश में समत्व रखना, सम रहकर कर्म करना, यह है ‘बुद्धियोग’ ।

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय । सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥  – श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्‍लोक ४८

अर्थ : हे धनंजय अर्जुन, तुम आसक्ति छोडकर, तथा सिद्धि एवं असिद्धि में (यश-अपयश में) समान भाव रखकर योग में स्थिर रहकर कर्तव्यकर्म करो । इस समत्वको ही ‘योग’ कहते हैं ।

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते । तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥ – श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्‍लोक ५०

अर्थ : समबुद्धि रखनेवाला पुरुष पुण्य तथा पाप, इन दोनों का ही इसी जगत् में त्याग करता है, अर्थात् उनसे मुक्त रहता है; इसलिए तुम समत्वरूप योग के अनुसार आचरण करो । यह समत्वरूप योग ही कर्मों में कुशलता है, अर्थात् कर्मबंधन से छूटने का उपाय है ।

विवेचन

कर्म करते समय उसमें यश मिलेगा अथवा नहीं, उसका वांछित परिणाम होगा अथवा नहीं, उससे सुख प्राप्त होगा अथवा दुःख, इस पर विचार न कर इन सभी में समबुद्धि रखना, यह कर्म करने में की कुशलता है । इससे सामान्यत: कर्मों से मिलनेवाले पाप-पुण्य प्राप्त न होकर मनुष्य कर्मोंके बंधन से मुक्त रहता है ।

१ इ. त्रिगुणातीत होना

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन । निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥ – श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्‍लोक ४५

अर्थ : हे अर्जुन, वेद तीनों गुणों के कार्यरूप भोग एवं उनकी प्राप्ति के साधन बताते हैं । तुम, भोग एवं उनकी प्राप्ति के साधनों में आसक्ति न रखकर त्रिगुणातीत हो जाओ । सुख-दुःखादि द्वंद्वों से रहित शाश्‍वत परमात्मा में स्थित, योगक्षेम की इच्छा न रखनेवाला एवं आत्मपरायण हो जाओ ।

विवेचन

वेद, वैदिक कर्म त्रिगुणमय हैं; इसलिए फल देते हैं, जो भोगने पडते हैं । कर्मों का फल पानेकी आशा, इच्छा तथा कर्मों के फलों के कारण होनेवाले सुख-दुःख आदि द्वंद्वों से अलिप्त रहना, यह है त्रिगुणातीत होना ।

 

२.  साधना

अ. आसक्ति न रखकर कर्म करने हैं तथा कर्मों के प्रति उदासीन भी नहीं रहना है ।

आ. अंतसमय में ब्रह्मलीन होना : सभी कामनाएं, ममता एवं अहंकार छोडनेवाले को शांति प्राप्त होती है । यह ब्रह्ममय स्थिति है । ऐसा साधक अंत समय में इस स्थितिमें रहकर ब्रह्म में लीन हो जाता है । (अध्याय २, श्‍लोक ७१, ७२)

विवेचन

सभी इंद्रियों के प्रति निरंतर दक्ष रहना आवश्यक !

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्‍चितः । इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥ – श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्‍लोक ६०

अर्थ : इंद्रियां इतनी प्रबल एवं चंचल हैं कि हे अर्जुन, इंद्रियों के नियंत्रण हेतु प्रयासरत विवेकी पुरुष के मन को भी वे अपनी ओर बलात् खींच लेती हैं ।

 

कर्म करके भी उनके पाप-पुण्य कैसे नहीं लगने देना, यह सिखानेवाला कर्मयोग

१.  कर्मफल

१ अ. कौनसा कर्म बंधन में डालता है ?

ईश्‍वरप्रीत्यर्थ, ईश्‍वरार्पण कर किए कर्मों के अतिरिक्त, सभी कर्मों से बंधन आता है, अर्थात् उनसे पाप-पुण्य लगते हैं जिनके फल भुगतने पडते हैं ।

१ आ. कर्म की आसक्ति छूट जाने का महत्त्व !

कर्म करना छोडनेमात्र से नैष्कर्म्य (सर्वकर्मपरित्याग) अथवा संन्यास नहीं होता, संन्यास का फल नहीं मिलेगा (‘उसके लिए और क्या करना चाहिए’, यह आगे पांचवें अध्याय में बताया गया है ।) तथा शरीर से कर्म छोडने पर भी, मन में कर्मों के विचार आते रहेें, तो वह ‘कर्म छोडना’ यह ढोंग होगा । (अध्याय ३, श्‍लोक ४ एवं ६)

१ इ. कर्मफल की आसक्ति मिटाने के उपाय

सभी कर्म प्रकृति के गुणों के द्वारा होते हैं; किन्तु अहंकार के कारण मोहित हुआ मनुष्य स्वयं को कर्ता मानता है । गुणविभाग एवं कर्मविभाग का तत्त्व (परिशिष्ट क्र. १, सूत्र ४) जाननेवाला गुणों में तथा कर्मों के फलों में आसक्त नहीं होता । विवेचन कर्म कर स्वभावदोष मिटाने की युक्ति

१. सामान्य मनुष्य कामनापूर्ति के लिए कर्म करता है, तो कर्मयोगी कामनानिवृत्ति के लिए कर्म करता है ।

२. कर्मयोग में कर्म दूसरों की सेवा के लिए किए, तो वह स्वयं के लिए योग होता है ।

३. कर्मयोग में शरीर दूसरों की सेवा हेतु उपयोग में लाने से अहंता, तथा अपनी वस्तुएं एवं धन दूसरों की सेवा में उपयोग में लाने से वस्तु तथा धन में रहनेवाली ममता नष्ट हो जाती है । निष्काम सेवा करने से अनुराग एवं द्वेष नष्ट हो जाते हैं ।

२.  साधना

अ. कर्म (फल) ईश्‍वर को अर्पित करना । ऐसा करने से कर्म का पाप-पुण्यरूप बंधन निर्मित नहीं होता । (अध्याय ३, श्‍लोक ९)

आ. कर्म, दूसरों के हित के लिए करना । दूसरों के लाभ के लिए अथवा उनकी सेवा के लिए करना ।

इ. कर्म करना ही है; किन्तु उसके फल की आसक्ति पूर्णत: छोडकर करना । (इससे उस कर्म से पाप-पुण्य नहीं लगता ।)(अध्याय ३, श्‍लोक १९)

ई. प्रकति के गुणों के कारण कर्म घटित होते हैं । ‘हम उन कर्मों के कर्ता नहीं हैं’, यह ध्यान में रखकर कर्म करना । कर्तापन का अहंकार न होने देना । (अध्याय ३, श्‍लोक २७ एवं २८)

उ. इंद्रियों का नियमन कर काम तथा क्रोध का नाश करना । (अध्याय ३, श्‍लोक ३७ एवं ४१)

 

भक्ति के विभिन्न प्रकार, तथा ईश्‍वर को
प्रिय लगनेवाले भक्त के लक्षण बतानेवाला भक्तियोग

१.  तत्त्वज्ञान

भक्त का उद्धार ईश्‍वर द्वारा किया जाना

जो सभी कर्म ईश्‍वर को अर्पित कर उनकी अनन्य भक्ति करते हैं, उनका मृत्युरूप संसारसागर से ईश्‍वर ही उद्धार करते हैं । (अध्याय १२, श्‍लोक ६ एवं ७)

२. विभिन्न साधनाएं

अ. मन और बुद्धि ईश्‍वर में लगाना (अध्याय १२, श्‍लोक ८)

आ. ईश्‍वरमें लगानेका अभ्यास न हो सके, तो (आसक्ति एवं स्वार्थ छोडकर) सभी कर्म ईश्‍वर के लिए करना (अध्याय १२, श्‍लोक १०)

इ. सभी कर्म ईश्‍वरार्पण न कर सकें, तो मन का संयम कर सभी कर्मों के फलों का त्याग करना (अध्याय १२, श्‍लोक ११)

विवेचन

गीता मेंं सर्वकर्मफलत्याग का महत्त्व सब से अधिक बताया गया है । उपनिषद् में भी कहा गया है, ‘त्यागेनै के अमृतत्त्वमानशु: ।’ (कैवल्योपनिषद् मंत्र ३), अर्थात् केवल त्याग से ही अमरत्व, अर्थात् जीवन-मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिलती है । आरंभ में कर्मों के फलों का त्याग करना पडता है । आगे चलकर वह सहजता से हो जाता है । इसके भी अगली अवस्था में किए गए कर्मों के फलों की इच्छा मन में उठती ही नहीं है । मन कामनारहित हो जाता है । ब्रह्म भी ऐसे ही कामनारहित रहता है, इसलिए ब्रह्म से साधर्म्य हो जाता है ।

३. फल

मन तथा बुद्धि ईश्‍वर में लगाने का अभ्यास, ईश्‍वर के स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास, ध्यान, सभी कर्मों के फलों का त्याग करना, इनमें से किसी भी साधना से क्रमश: चित्तशुद्धि होती जाकर ईश्‍वरप्राप्ति होती है ।

४.  ईश्‍वर को प्रिय लगनेवाले भक्त के लक्षण

किसी का भी द्वेष न करनेवाला, करुणामय, सुख-दुःखादि सभी द्वंद्वों में सम रहनेवाला, क्षमाशील, सदा संतुष्ट, मन एवं इंद्रियां वश में किया हुआ, मन तथा बुद्धि ईश्‍वर में लगा हुआ, जिससे दूसरों को उद्वेग नहीं होता एवं जो दूसरों से उद्विग्न नहीं होता, ऐसा अपेक्षारहित, अंतर्बाह्य शुद्ध, सभी कर्मों के आरंभ में ही कर्तापन का त्याग किया हुआ, ऐसा भक्त ईश्‍वर को प्रिय होता है ।

संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ ‘गीताज्ञानदर्शन’

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