चेन्नई : कई लोग देवताओं के भजन गाते हैं और दूसरों को भी सिखाते हैं; किंतु उनमें से कुछ ही लोग ईश्वरभक्ति करने हेतु भजन गाते हैं । उनमें से १-२ उत्कट भक्त ही ईश्वरप्राप्ति कर पाते हैं । इसी प्रकार से नामसंकीर्तन और भजनों के माध्यम संतपद प्राप्त करनेवाली थोर विभूति तथा सनातन की पू. (श्रीमती) उमा रविचंद्रन् की संगीत साधना की गुरु श्री. कांतीमती संतानम् के दर्शन उपस्थित साधकों का हुए । २५ अगस्त को पू. (श्रीमती) उमा रविचंद्रन् के निवासपर सद्गुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी ने श्रीमती कांतीमती संतानम् से भावपूर्ण संवाद किया । इस संवाद के समय ही सद्गुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी ने श्रीमती कांतीमती संतानम् (आयु ८१ वर्ष) के संतपदपर विराजमान हो जाने की घोषणा की । सद्गुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी ने उन्हें पुष्पमाला, श्रीफल और भेंटवस्तु प्रदान कर सम्मानित किया । इस अवसरपर श्रीमती कांतीमती संतानम् की छोटी पुत्री श्रीमती रमा एवं सनातन संस्था के साधक उपस्थित थे ।
१. संतपद से भी सद्गुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी के दर्शन
अधिक महत्त्वपूर्ण माननेवाली पू. (श्रीमती) कांतीमती संतानम् मामीजी !
इस अवसरपर श्रीमती कांतीमती संतानम् ने उनके संतपद का संपूर्ण श्रेय उपास्यदेवता श्री मुरुगन् (कार्तिकेय) और उनके पति श्री. संतानम् के चरणों में समर्पित किया । इस अवसरपर श्रीमती कांतीमती संतानम् मामीजी ने कहा, ‘‘मैं संतपदपर विराजमान हुई, इससे भी अधिक इस जीवन में मुझे सद्गुरु (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी के दर्शन हुए, यह महत्त्वपूर्ण है । आज मुझे सद्गुरु के दर्शन होने से मेरे जीवन के सभी दुख इसी क्षण दूर हो गए हैं । इससे अधिक मुझे क्या चाहिए ?’’
२. नामसंकीर्तन क्या होता है ?
नामसंकीर्तन का अर्थ छोटी-छोटी भजनपंक्तियों के माध्यम से ईश्वर को पुकारकर उनकी भक्ति करना । दक्षिण भारत के भक्तिपंथों के कुछ संतों ने समाज को ईश्वरप्राप्ति के मार्गपर मोडने हेतु यह एक सरल मार्ग है ! वास्तव में तमिलनाडू में नामसंकीर्तन की संकल्पना तो महाराष्ट्र में आरंभ विठ्ठलजी के अभंगों के माध्यम से आरंभ हुई । आज तमिलनाडू में कई संत, भजन मंडल एवं कथाकार आदि विठ्ठल, मुरुगन् (कार्तिकेय), कृष्ण, राधा-कृष्ण, दुर्गादेव आदि देवताओं के गीतों को छोटी द्विपदीयां अथवा चौपदियां में बिठाकर उन्हें एक राग और लय में गाते हैं । इस प्रकार से भजन गाते-गाते वे कभी-कभी टिपरीयां लेकर सुंदर भावपूर्ण नृत्य भी करती हैं ।
३. पू. कांतीमतीमामीजी की कुछ विशेषताएं
अ. कई बार आयु के चलते श्रीमती कांतीमती संतानम् मामीजी का स्वास्थ्य अच्छा नहीं होता, तब भी वे भजन गाती हैं । वे जब भजन गाती हैं, तब साक्षात मुरुगन् (कार्तिकेय) ही उनके मुख के माध्यम से गाते हैं, ऐसा उनमें भाव होता है ।
आ. पू. मामीजी जब अन्य कहीं भजन गाने जाती हैं; तब उनका ध्यान कभी भी उन्हें मिलनेवाला गौरवधन अथवा व्यवस्थापन की ओर से मिलनेवाले पैसों की ओर नहीं होता । पू. मामीजी कहती हैं, ‘‘मैं मेरे मुरुगन् के लिए गाने हेतु उधर जाती हूं ।’ ऐसा होते हुए भी उनके साथ भजन गानेवाली निर्धन महिलाएं, तबलावादक और हार्मोनियमवाद को उचित गौरवधन मिले, इसकी ओर वे ध्यान देती हैं ।
इ. पू. मामीजी को अभीतक अपनी इष्टदेवता के दर्शन होना अथवा स्वप्नदृष्टांत होना जैसी अनुभूतियां नहीं हुई हैं; किंतु उन्हें सदैव ऐसा लगता है कि मुरुगन् (कार्तिकेय) उनसे बातें करते हैं । पू. मामीजी को इसकी निरंतर अनुभूति होती हैं । संक्षेप में कहा जाए, तो पू. मामीजी निरंतर अनुसंधान में रहती हैं ।
४. पू. कांतीमतीमामीजी का विचारधन
अ. भारतीय शास्त्रीय संगीत भक्तिपर आधारित होने से वह शाश्वत है, तो पाश्चात्त्य संगीत पैसोंपर आधारित होने से वह अशाश्वत है । भारतीय शास्त्रीय संगीत के कारण ही आनंद की अनुभूति हो सकती है ।
आ. आजतक मेरे जीवन में कई संकय और समस्याएं आईं; किंतु मेरे ईष्टदेवता श्री मुरुगन्जी की कृपा के कारण ही मेरी इन सभी संकटों में रक्षा हुई और इसके आगे भी वही सभी संकटों से मेरी रक्षा करनेवाले हैं । – श्रीमती कांतीमती संतानम्
५. पू. (श्रीमती) कांतीमती संतानम् की विविध संगीत सभाएं तथा
कांची मठ द्वारा उन्हें ‘भागवत चुडामणि’ पुरस्कार प्रदान कर उनका किया गया सम्मान
उन्हें अभीतक ‘भागवत चुडामणि’, ‘नामावली रत्न’, ‘तिरुपुगज चेम्मन्नी’, ‘भागवतरत्न’, ‘संकीर्तन चुडामणि’ आदि पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है ।
पू. (श्रीमती) कांतिमती संतानम् का संक्षिप्त परिचय
श्रीमती कांतीमती संतानम् कई उपाधियों से आभूषित हैं । सदैव हंसमुख और आयु के ८१वें वर्ष में भी छोटे बच्चों की भांति उत्साहित श्रीमती कांतीमती संतानम् को सभी लोग प्रेमपूर्वक ‘मामीजी’ कहकर बुलाते हैं । श्रीमती कांतीमतीजी को उनके पिता में बचपन में ही भजन गाना सिखाया । जब वे २ वर्ष की थीं ,तब उनके पिता स्व. रामस्वामी अय्यर उन्हें मंदिर ले जाते थे । उनके पिता उन्हें मंदिर की दीवारपर लिखी भजनपंक्तियां पढने के लिए और यथासंभव गाने के लिए कहते थे । आगे चलकर पिता के भजन-कीर्तन करते समय मामीजी अपना देहभान भूल जाती थीं । वर्ष १९६१ में उनका विवाह चेन्नई के श्री. संतानम् से हुआ । उसके पश्चात वर्ष १९७५ में इस दंपति ने नया घर खरीदा । तब से लेकर आजतक विगत ४४ वर्षों से पू. मामाजी प्रतिदिन भजन के वर्ग लेती हैं और अभीतक उनके मार्गदर्शन में सहस्रों लोगों ने भजन गायन सीखा है ।
उन्हें २ पुत्र और २ पुत्रियां हैं । वे सभी विवाहित हैं और इन सभी को भजन एवं संगीत में रूचि है । उनके दोनों पुत्र अमेरिका में रहते हैं । उनकी बडी पुत्री तमिलनाडू के सेलम् में, तो छोटी पुत्री चेन्नई में रहती है । पिछले २ वर्षों से पू. मामाजी के पति श्री. संतानम् पक्षाघात के कारण बिछाैनेपर हैं । आयु और शारीरिक व्याधियों के कारण अब वे चल नहीं सकती; किंतु ऐसा होते हुए भी वे भजनगायन हेतु उत्साह से अन्यत्र जाती हैं ।