आध्यात्मिक यात्रा (साधना) आरंभ करें
आध्यात्मिक यात्रा (साधना) आरंभ करना क्यो आवश्यक है ? मनुष्यजीवन का कारण क्या है ? अध्यात्म पता न होने से यह प्रश्न लोगों के मन में रहता है । यदि भगवान ही सुख और दुःख देते हैं, तो मेरा सभी से प्रश्न है कि सुख के समय कितने लोग भगवान के प्रति आभार अथवा कृतज्ञता व्यक्त करते हैं कि हे भगवान, आपकी कृपा के कारण ही यह सुख मेरे जीवन में आया । बहुत ही कम लोग होंगे । फिर जीवन के दुःख के लिए हमें भगवान को दोष देने का अधिकार है क्या ? वास्तव में भगवान न सुख देता है और न दुःख । हमारे कर्म ही हमारे सुख और दुःख का कारण होते हैं । जीवनमें आनेवाले दुःखोंका धैर्यपूर्वक सामना करनेकी शक्ति एवं सर्वोच्च स्तरका निरंतर बना रहनेवाला आनंद केवल साधनासे ही प्राप्त होता है । साधना अर्थात् ईश्वरप्राप्ति हेतु किए जानेवाले प्रयास ।
सुख-दुःख के क्या कारण हैं ?
सुख की इच्छा ही दुःख का कारण है । दुःख के बंधनों से छूटने का एक ही मार्ग है और वह है ऐहिक सुख की कामना को नष्ट करना; क्योंकि सुख की इच्छा से ही मनुष्य पुण्य करने जाता है, परंतु साथ ही पाप भी कर बैठता है और जन्म-मृत्यु का यह कालचक्र चलता रहता है ।
हमारे जीवन में ८० प्रतिशत दु:ख का कारण आध्यात्मिक होता है ।
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मनुष्यजीवन का कारण क्या है ?
मनुष्य का पुनः-पुनः जन्म होने के विविध कारण है । इसके दो प्रमुख कारण हैं – पहला कारण है प्रारब्ध अर्थात पिछले जन्म में किए अच्छे-बुरे कर्मों को भुगतना और सामान्य जीवनयापन करना । दस सहस्र में से केवल एक जीव ही आध्यात्मिक उन्नति के लिए जन्म लेता है । आनंदप्राप्ति के लिए आध्यात्मिक उन्नति करता है । जिस आनंदस्वरूप ब्रह्म से हमारी उत्पत्ति हुई है, उन तक पहुंचने का आकर्षण हर किसी में थोडा-बहुत तो रहता ही है । उन तक पहुंचने के लिए अर्थात आनंदप्राप्ति तथा ईश्वरप्राप्ति के लिए क्या करना आवश्यक है, यह अध्यात्मशास्त्र सिखाता है ।
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इसलिए अपनी आध्यात्मिक यात्रा (साधना) आरंभ करें !
- नामजप : कलियुग की श्रेष्ठ उपासना !
- नामजप कहां करना चाहिए ?
- नामजप कौनसा करें ?
- नामजप अधिक एकाग्रता से होने हेतु स्वभावदोष (षड्रिपु)-निर्मूलन प्रक्रिया का महत्त्व !
- अहं : ईश्वर की प्राप्ती में आनेवाली बाधा !
- साधना में अति शीघ्र प्रगति का मार्ग कौनसा है ?
नामजप : कलियुग की श्रेष्ठ उपासना !
श्रीकृष्ण ने महाभारत में बताया है कि ‘यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि ।’ अर्थात कलियुग में सर्व यज्ञों में जपयज्ञ मैं हूं । इससे कलियुग में नामजप का महत्त्व स्पष्ट होता है । पूजा, आरती, भजन, पोथीपाठ इत्यादि उपासना के प्रकार के कारण देवता की कृपा होकर देवता के तत्त्व का लाभ होता है; परंतु इस उपासना की अपनी सीमा होती है, इसलिए हमें लाभ सीमित ही होता है । देवता के तत्त्व का लाभ निरंतर प्राप्त करने हेतु देवता की उपासना भी निरंतर करनी चाहिए । देवता की उपासना निरंतर करते रहने की एक ही उपासनापद्धति है – नामजप । नामजप अर्थात् ईश्वर के नाम का निरंतर स्मरण करना । कलियुग के लिए नामजप ही सरल एवं सर्वोत्तम उपासना है ।
नामजप कहां करना चाहिए ?
सबकुछ ईश्वर ने ही बनाया है, इसलिए कहीं भी और कभी भी उनका नामजप कर सकते हैं । एक स्थान पर बैठकर नामजप करने से अच्छा है सब व्यावहारिक कार्य करते हुए नामजप करना । एक तो नामजप श्रेष्ठ साधना है; यह निरंतर कर सकते हैं । दूसरा यह कि व्यवहार के सब कार्य करते हुए नामजप करने से माया में रहकर भी न रहने समान होता है । सभी स्थितियों में भगवान से जुडे रहने को ही सहजावस्था अथवा सहजस्थिति कहते हैं । नामजप करने के विषय में कोई निश्चित नियम नहीं हैं ।
नामजप कौनसा करें ?
अ. गुरूद्वारा दिया नाम
गुरुप्राप्ति हुई हो और गुरुमंत्र मिला हो, तो वही जपें ।
आ. कुलदेवता
ईश्वरके अनेक नामोंमेंसे कुलदेवताका नामजप जपें । जिस कुल के देवता, अर्थात् कुलदेवी या कुलदेव, हमारी आध्यात्मिक उन्नतिके लिए अत्यंत उपयुक्त होते हैं, ऐसे कुल में ईश्वर हमें जन्म देते हैं । अंतिम श्वासतक प्रत्येक को अपने प्रारब्ध की तीव्रता भुगतनी पडती है । कुलदेवता के नामजप से यह कम होती है ।
कुलदेवता और कुलदेवी दोनों हों, तब कौन-सा नामजप करें ?
- हम बचपन में पिताजी की अपेक्षा मां से अधिक हठ करते हैं; क्योंकि वह हमारा हठ शीघ्र पूरा करती है । उसी प्रकार कुलदेवता की अपेक्षा कुलदेवी शीघ्र प्रसन्न होती हैं ।
- कुलदेवी, कुलदेवाता की अपेक्षा पृथ्वीतत्त्व से अधिक संबंधित होती हैैं । उसके नाम से साधना आरंभ करने पर कष्ट नहीं होता ।
- जिनके केवल कुलदेवता हैं, वे उन्हीं का जप करें; उदा. श्री व्यंकटेश कुलदेवता हों, तो श्री व्यंकटेशाय नमः जप करें ।
- परात्पर गुरु का दिया नामजप आध्यात्मिक उन्नति में १००, कुलदेवी का ३० तथा कुलदेवता का २५ प्रतिशत उपयोगी होता है ।
इ. पितृदोष निवारण हेतू दत्तात्रेय देवताका नामजप
वर्तमान में पूर्व की भांति कोई श्राद्ध-पक्ष इत्यादि नहीं करते तथा न ही वे साधना करते है । इसलिए अधिकतर सभी को पूर्वजों की अतृप्ति के (पितृदोष के) कारण कष्ट हो सकते हैं । आगे पितृदोष की संभावना है या वर्तमानमें हो रहा कष्ट पितृदोष के कारण है, यह केवल उन्नत पुरुष ही बता सकते हैं ।
अधिक वृत्त पढें @ श्री गुरुदेव दत्त का नामजप (Audio) कैसे करें ?
नामजप अधिक एकाग्रता से होने हेतु स्वभावदोष (षड्रिपु)-निर्मूलन प्रक्रिया का महत्त्व !
लगभग हम सभी में क्रोध, चिडचिडाहट, आलस्य, भूलना इत्यादि स्वभावदोष न्यूनाधिक मात्रा में होते हैं । जिस व्यक्ती में स्वभावदोष है वह व्यक्ति कभी भी ईश्वर के साथ एक नहीं हो सकता । स्वभावदोषों के कारण एक और हानि होती है । स्वभावदोषों का लाभ उठाकर अनिष्ट शक्तियों के लिए मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर, उसमें दीर्घकालतक वास करना सरल हो जाता है । इसीलिए प्रत्येक व्यक्ति के लिए ही स्वभावदोष दूर करने हेतु प्रामाणिक प्रयत्न करने आवश्यक हैं ।
अहं : ईश्वर की प्राप्ती में आनेवाली बाधा !
अहं को पूर्णतः नष्ट किए बिना परमेश्वरीय कृपा संभव नहीं । साधना का उद्देश्य है अहं का नाश (लय)। मनुष्य में अहं अत्यंत गहराई तक होता है; साधना द्वारा भी इस पर नियंत्रण पाना सहज संभव नहीं होता । अहं-निर्मूलन हेतु सतर्कतापूर्वक प्रयत्न आवश्यक हैं ।
अहं जितना अधिक होगा, व्यक्ति उतना ही दुःखी होगा । मानसिक रोगियों का अहं सामान्य व्यक्ति की तुलना में अधिक होता है; इसलिए वे अधिक दुःखी होते हैं । इसके विपरीत, संत मानते हैं कि सब कुछ परमेश्वर का है, किसी पर भी अपना अधिकार नहीं है, इसलिए वे कभी दुःखी नहीं होते, सदैव आनंद में रहते हैं ।
व्यक्ति के अहं का पूर्णतः निर्मूलन होने के लिए स्वभावदोष-निर्मूलन के साथ-साथ, अहं को घटाने हेतु साधना के महत्त्वपूर्ण प्रयत्न भी सातत्य से करना आवश्यक है ।
साधना में अति शीघ्र प्रगति का मार्ग कौनसा है ?
कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग आदि किसी भी मार्गसे साधना करनेपर भी बिना गुरुकृपाके व्यक्तिको ईश्वरप्राप्ति होना असंभव है । इसीलिए कहा जाता है, ‘गुरुकृपा हि केवलं शिष्यपरममङ्गलम् ।’, अर्थात् ‘शिष्यका परममंगल अर्थात् मोक्षप्राप्ति, उसे केवल गुरुकृपासे ही हो सकती है ।’ गुरुकृपाके माध्यमसे ईश्वरप्राप्तिकी दिशामें मार्गक्रमण होनेको ही ‘गुरुकृपायोग’ कहते हैं । ‘गुरुकृपायोग’की विशेषता यह है कि, यह सभी साधनामार्गों को समाहित करनेवाला ईश्वरप्राप्तिका सरल मार्ग है ।
विभिन्न योगमार्गों से साधना करने में अनेक वर्ष व्यर्थ न गंवाकर अर्थात अन्य समस्त मार्गों को छोडकर किस प्रकार शीघ्र गुरुकृपा प्राप्त की जा सकती है, यह गुरुकृपायोग सिखाता है ।
गुरुकृपायोगानुसार की जानेवाली साधना का एक ही नियम है और वह है जितने व्यक्ति उतनी प्रकृतियां, उतने साधनामार्ग । पृथ्वी की जनसंख्या ७०० करोड से अधिक है, इसलिए ईश्वरप्राप्ति के ७०० करोड से अधिक मार्ग हैं । ७०० करोड में से कोई भी दो व्यक्ति एक समान नहीं होते । प्रत्येक व्यक्ति के शरीर, मन, रुचि-अरुचि, गुण-दोष, आशा-आकांक्षाएं, वासनाएं, सर्व भिन्न हैं; प्रत्येक की बुद्धि भिन्न है; संचित, प्रारब्ध भिन्न हैं, पृथ्वी, आप, तेज, वायु एवं आकाश, ये तत्त्व (मनुष्य इन पंचतत्त्वों से बना है ।) भिन्न हैं; सत्त्व, रज, तम, ये त्रिगुण भिन्न-भिन्न हैं । संक्षेपमें, प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति एवं पात्रता भिन्न है । इसीलिए ईश्वरप्राप्ति के साधनामार्ग भी अनेक हैं । अपनी प्रकृति तथा पात्रता के अनुरूप साधना करने पर शीघ्र ईश्वरप्राप्ति होने में सहायता मिलती है ।
साधना संवाद : अध्यात्म का प्राथमिक सत्संग
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