’माया में शिक्षा तन मन धन का उपयोग कर धन…
‘माया में शिक्षा तन मन धन का उपयोग कर धन प्राप्ति करना सिखाती है, पर साधना में तन मन धन का त्याग कर ईश्वर प्राप्ति करना सिखाते हैं।’ -(परात्पर गुरु) डॉ. जयंत आठवले
‘माया में शिक्षा तन मन धन का उपयोग कर धन प्राप्ति करना सिखाती है, पर साधना में तन मन धन का त्याग कर ईश्वर प्राप्ति करना सिखाते हैं।’ -(परात्पर गुरु) डॉ. जयंत आठवले
”कहां अर्थ और काम पर आधारित पश्चिमी संस्कृति और कहां धर्म तथा मोक्ष पर आधारित हिन्दू संस्कृति ! हिन्दू पश्चिम का अंधानुकरण कर रहे हैं, इसलिए उनका भी विनाश की ओर मार्ग क्रमण हो रहा है!” – सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवले
‘अधोगति को प्राप्त समाज का प्रतिबिंब कथा, नाटक, उपन्यास, चलचित्र, दूरदर्शन के धारावाहिक इत्यादि में न दिखाते हुए; इनमें समाज को दिशा दिखानेवाले आदर्श समाज का चित्रण सभी से अपेक्षित है।’ -(परात्पर गुरु) डॉ. जयंत आठवले
शिष्य जब गुरु की बातें मानने का अभ्यस्त हो जाता है, तब वह ईश्वर की बातें मानने लगता है। ऐसे शिष्य को ही ईश्वर दर्शन देते हैं, इसलिए बुद्धिवादियों को ईश्वर दर्शन नहीं देते ! -(परात्पर गुरु) डॉ. जयंत आठवले
नौकरी करनी हो, तो किसी और की करने की अपेक्षा ईश्वर की करें । ईश्वर नौकरी के लिए थोड़ा कुछ देने के स्थान पर सबकुछ देंगे ! -(परात्पर गुरु) डॉ. जयंत आठवले
‘प्रवचन, व्याख्यान और वर्तमान घटनाक्रम पर ग्रन्थ लिखने में जिनका जीवन व्यतीत होता है, उनका नाम और कार्य उनके जीवित रहने तक रहता है । इसके विपरीत जो शोध कार्य करते हैं उनका नाम और कार्य अगली अनेक पीढ़ियों को भी ज्ञात होता है ।’ -(परात्पर गुरु) डॉ. जयंत आठवले
अध्यात्म की तुलना में विज्ञान आंगनवाडी समान है ! अनेक वर्ष शोध करने के उपरांत वैज्ञानिक किसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं । कुछ वर्षों में उसी सदंर्भ में नया शोध होता है और पहले के शोध भुला दिए जाते हैं । इसके विपरीत अध्यात्म में कोई शोध नहीं करना होता । ईश्वर से योग्य ज्ञान … Read more
‘ईश्वर में स्वभावदोष एवं अहं नहीं है । उनसे एकरूप होना हो, तो हममें भी वे न होना आवश्यक है।’ -सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवले
पूर्व के युगों में प्रजा सात्त्विक थी, अतः ऋषियों को समष्टि प्रसारकार्य नहीं करना पडता था । अब कलियुग में अधिकांश लोग साधना नहीं करते, इसलिए संतों को समष्टि प्रसारकार्य करना पडता है ! -(परात्पर गुरु) डॉ. जयंत आठवले
‘जिस प्रकार निरक्षर का कहना कि ‘सर्व भाषाओं के अक्षर समान होते हैं’, उसका अज्ञान दर्शाता है, उसी प्रकार जो ‘सर्वधर्मसमभाव’ कहते हैं, वह अपना अज्ञान दर्शाते हैं । ‘सर्वधर्मसमभाव’ कहना उसी सामान है जैसे कहना कि,‘सभी औषधियां, सभी कानून समान हैं ।’ -(परात्पर गुरु) डॉ. जयंत आठवले