योगतज्ञ दादाजी वैशंपायन
२५.७.२०१० को योगतज्ञ दादाजी वैशंपायन सत्कर्म सेवा सोसाइटी की ओर से परात्पर गुरु डॉ. जयंत आठवलेजी को सम्मानपत्र और पंद्रह सहस्र रुपए देकर योगतज्ञ दादाजी वैशंपायन गुणगौरव पुरस्कार प्रदान किया गया ।
२५.७.२०१० को योगतज्ञ दादाजी वैशंपायन सत्कर्म सेवा सोसाइटी की ओर से परात्पर गुरु डॉ. जयंत आठवलेजी को सम्मानपत्र और पंद्रह सहस्र रुपए देकर योगतज्ञ दादाजी वैशंपायन गुणगौरव पुरस्कार प्रदान किया गया ।
साधकों को पूर्णकालीन साधना के लिए अनुकूल वातावरण उपलब्ध हो, इसलिए परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने गुरुकुल समान आश्रमों की निर्मिति की है ।
संत ही संतों को पहचान सकते हैं और वे ही अन्य संतों के कार्य का महत्त्व समझ सकते है । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के आध्यात्मिक कार्य का महत्त्व ज्ञात होने से अनेक संतों ने परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी को सम्मानित एवं पुरस्कार देकर गौरवान्वित किया ।
प.पू. डॉक्टरजी ने अन्नपूर्णाकक्ष को सुव्यवस्थित करने के लिए अथक प्रयास किया । आरंभ के दिनों में छोटी-छोटी बातों से अन्नपूर्णाकक्ष की बडी योजनाआें तक उन्होंने व्यक्तिगत रूप से ध्यान दिया और रसोईघर को अन्नपूर्णा-कक्ष बनाया ।
इस चित्रमें भगवान श्रीकृष्णद्वारा धारण किए उपरनेका एक छोर बालभावयुक्त साधिकाद्वारा हठपूर्वक नीचे भूमितक खींचना और इसीसे श्रीकृष्णसे उसकी निकटता स्पष्ट होती है ।
‘गणेशचतुर्थीके दिन भगवान श्रीकृष्ण मुझे सिखा रहे हैं कि श्री गणेशजीकी पूजा भावपूर्णरीतिसे कैंसे करनी चाहिए ।
परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के मार्गदर्शन के कारण साधकों पर जीवन का प्रत्येक कृत्य कलात्मक रूप से तथा सत्यम् शिवम् सुंदरम् करने का संस्कार हो गया है ।
‘कला की शिक्षा लेते समय मुझे जो सिखने को नहीं मिली, ऐसी सूक्ष्मताएं (बारीकीयां) परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने मुझे साधना में आने पर सिखायी । ‘कला से संबंधित सेवा साधना ही है’, यह भी उन्होंने हमारे मन पर प्रतिबिंबित किया ।
अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के सम्मोहन उपचार विशेषज्ञ परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने २४ मार्च १९९९ को सनातन संस्था की स्थापना की । उन्होंने शीघ्र ईश्वरप्राप्ति के लिए गुरुकृपायोग बताया ।
साधनापथपर मार्गक्रमण करते समय साधककी साधना एक स्तरतक बढनेपर उसका ईश्वरके प्रति भाव जागृत होता है । ईश्वरकी ओर देखनेका दृष्टिकोण साधकके भावानुरूप भिन्न होता है, उदा. अर्जुनका भगवान श्रीकृष्णके प्रति सख्यभाव, हनुमानजीका दास्यभाव आदि ।