साधना करते समय आसन कैसा होना चाहिए ?

माता उमा ने ध्यान-धारणा करते समय योग्य आसन कौन सा ? यह प्रश्न पूछने पर भगवान शिवजी कहते हैं; ‘निश्चित स्थान पर दर्भासन पर बैठकर साधना करनी चाहिए अथवा स्वच्छ गुदडी की घडी बनाकर उस पर बैठना चाहिए ।’

साधको, ‘सेवा, गुरुकृपा का माध्यम है’, यह भाव रखकर सेवा करो !

ईश्वरप्राप्ति के लिए की गई साधना में सेवा का महत्त्व है । हमें सेवा इस प्रकार करनी चाहिए जिससे हमारे स्वभावदोष नष्ट हों, गुण बढें, सेवा का आनंद मिले और हमारी शीघ्र आध्यात्मिक उन्नति होगी

ब्रिटीश महिला को प्रतीत हुई महारुद्र अनुष्ठान की महीमा !

स्वतंत्रतापूर्वकाल में अफगानिस्तान और ब्रिटेन में युद्ध चल रहा था । इलाहाबाद के मार्टिन डेल नामक ब्रिटिश अधिकारी को भी युद्ध पर भेजा गया था । वह अपनी पत्नी को पत्र लिखता था ।

भक्त को आश्‍वस्त करनेवाले भगवान श्रीकृष्ण के कुछ वचन

‘श्रीमद्भगवद्गीता से यह ज्ञान मिलता है कि ‘जीवन को कैसे जीना चाहिए और कैसे नहीं ।’ वह मार्ग से भटके लोगों का मार्गदर्शन करती है तथा दुःखी-पीडित लोगों को आश्‍वस्त करती है ।

सांख्ययोग व बुद्धियोग, इन मोक्षप्राप्ति के दो राजमार्गों में से बुद्धियोग

अपेक्षारहित, अंतर्बाह्य शुद्ध, सभी कर्मों के आरंभ में ही कर्तापन का त्याग किया हुआ, ऐसा भक्त ईश्वर को प्रिय होता है ।

भक्तियोग

भक्तियोग किसे कहते हैं, भक्तियोग इस साधना मार्ग की उत्पत्ति, उसकी विशेषताएं आदि के विषय में जाने एवं भक्त बनने के लिए क्या करना चाहिए ?

आनंद

आनंद अर्थात ज्ञानेंद्रियों, मन तथा बुद्धि का उपयोग किए बिना जीवात्मा अथवा शिवात्मा को होनेवाली अनुकूल संवेदना. जब चित्त सदैव संतुष्ट रहने लगे, तब उसमें जो वृत्ति उभरती है, उसे आनंद’ कहते हैं ।

अध्यात्म समझ लीजिए !

प्राचीन काल से ही भारत और भारतीयों की पहचान आध्यात्मिक देश और व्यक्ति के रूप में रही है । देश को अध्यात्मशास्त्र भिन्न प्रकार से सिखाने की अथवा समझाने की आवश्यकता नहीं थी ।

यदि देवी की मूर्ति नीचे गिर जाए अथवा गिरकर टूट जाए, तब क्या करना चाहिए ?

‘यदि मूर्ति नीचे गिर जाए और खंडित न हो, तब प्रायश्चित करने की आवश्यकता नहीं है । देवी से केवल क्षमा मांगें तथा तिलहोम, पंचामृत पूजा, दुग्धाभिषेक आदि कर्म अध्यात्म के जानकार से पूछकर करें ।

प्रीति : चराचर के प्रति निरपेक्ष प्रेम सीखानेवाला साधना का स्तर !

प्रीति अर्थात् निरपेक्ष प्रेम । व्यवहार के प्रेम में अपेक्षा रहती है । साधना करनेसे सात्त्विकता बढ जाती है तथा उससे सान्निध्य में आनेवाली चराचर सृष्टि को संतुष्ट करने की वृत्ती निर्माण होती है ।