आनंदप्राप्ति की इच्छा क्यों होती है ?
आनंद जीव का एवं विश्व का स्थायीभाव, स्वभाव, स्वधर्म है । इसलिए अपने मूल स्वरूप को पाना, अर्थात आनंद प्राप्त करना एवं मूल स्वरूप को पाकर होनेवाली आनंद की अनुभूति को बनाए रखना ही जीव की स्वाभाविक प्रवृत्ति है ।
आनंद जीव का एवं विश्व का स्थायीभाव, स्वभाव, स्वधर्म है । इसलिए अपने मूल स्वरूप को पाना, अर्थात आनंद प्राप्त करना एवं मूल स्वरूप को पाकर होनेवाली आनंद की अनुभूति को बनाए रखना ही जीव की स्वाभाविक प्रवृत्ति है ।
मनुष्य सुख के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहता है, फिर भी वह दिनोदिन अधिकाधिक दुःखी हो रहा है । थोडा-बहुत तो खरा सुख मिले, इसके लिए आगे कुछ उपाय बताए गए हैं ।
आत्मदर्शन के ध्येय से प्रेरित व्यक्तियों को अपने सांसारिक सुख-दुःख ही क्या, प्राणिमात्र के सुख-दुःख के संबंध में भी कुछ नहीं लगता । इसके विपरीत, जो केवल परिवार का अथवा अपना ही विचार करता है, वह अधिकांशतः आजीवन दुःखी रहता है ।
सुख की इच्छा ही दुःख का कारण है । दुःख के बंधनों से छूटने का एक ही मार्ग है और वह है ऐहिक सुख की कामना को नष्ट करना; क्योंकि सुख की इच्छा से ही मनुष्य पुण्य करने जाता है, परंतु साथ ही पाप भी कर बैठता है और जन्म-मृत्यु का यह कालचक्र चलता रहता है ।
केवल मनुष्य की ही नहीं, अपितु अन्य प्राणि की भागदौड भी अधिकाधिक सुखप्राप्ति के लिए ही होती है । इसके लिए प्रत्येक व्यक्ति पंचज्ञानेंद्रिय, मन एवं बुद्धि द्वारा विषय सुख भोगने का प्रयत्न करता है; परंतु विषय सुख तात्कालिक एवं निम्न श्रेणी का होता है, तो दूसरी ओर आत्मसुख, अर्थात आनंद चिरकालीन एवं सर्वोच्च श्रेणी का होता है ।
कठिनाई आनेपर उसी के विषय में अधिक समय तक सोचते रहने से मन अशांत होता है और समस्या अधिक विकट बनती है । समस्या आनेपर मन से स्थिर रहकर सोचिए कि ‘इसे हल करना मेरी साधना है ।
गुरु के किसी उद्देश्य के अथवा उनके द्वारा बताई गई किसी सेवा के कार्यकारणभाव को भली-भांति समझकर, कम से कम समय में एवं उचित ढंग से उसे पूर्णत्वतक ले जाना गुरु को अपेक्षित होता है । गुरु यदि कहें, ‘पूजा करो’ और शिष्य बुद्धि का प्रयोग कर अधिकाधिक अच्छे ढंगसे पूजा करे, तो यह अवज्ञा नहीं होती; अपितु गुरु इस बात से प्रसन्न होते हैं ।
गोपियों के हाथ से कृष्ण मक्खन खाते हैं; उन्हें प्रत्यक्ष भगवान के साथ रहने के लिए मिलता है’,ऐसा प्रतीत होकर, स्वयं भी साधना करने का विचार मन में आना एवं श्रीकृष्ण की कृपा से प्रत्यक्ष उनका संसार करना
आध्यात्मिक उन्नति हेतु जो गुरु द्वारा बताई साधना करता है, उसे ‘शिष्य’ कहते हैं । शिष्यत्व का महत्व यह है कि उसे देवऋण, ऋषिऋण, पितरऋण एवं समाजऋण चुकाने नहीं पडते ।