नामकरण

जिसप्रकार बच्चे का लिंग गर्भाशय में ही निश्चित होता है, उस प्रकार बच्चे का नाम भी पूर्वनिश्चित ही होता है । शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गंध, ये घटक एकत्रित रहते हैं; इसीलिए बच्चे का जो रूप है उसके अनुसार उसका नाम भी होता है ।

तीसरा संस्कार : सीमंतोन्नयन

सीमंतोन्नयन शब्द सीमंत (मांग की रेखा) एवं उन्नयन (केश ऊपर से पीछे की ओर करना), इन दो शब्दों से बना है । सीमंतोन्नयन अर्थात पत्नी के सिर के केश ऊपर से पीछे की ओर कर मांग निकालना ।

शिशू के जन्म उपरांत कौनसे संस्कार करें ? (चौथा, पांचवां, छठा एवं सातवां संस्कार)

जातकर्म विधि के उद्देश्य हैं – उदकप्राशनादि से गर्भसंबंधी दोषों का निवारण हो एवं पुत्रमुख देखने से पुत्र का पिता ऋणत्रयी से (पितृऋण, ऋषिऋण, देवऋण से) तथा समाजऋण से मुक्त हो ।

आठवां संस्कार : चौलकर्म ( चूडाकर्म, चोटी रखना )

चूडा अर्थात पुरुष की शिखा (चोटी) । यह शिखा सिर पर सहस्रारचक्र के स्थान पर रखी जाती है । इस स्थान पर स्थित केश छोडकर शेष केश कटवाने की क्रिया को चौलकर्म अथवा चूडाकर्म कहते हैं ।

नौवां संस्कार : उपनयन (व्रतबंध, मुंज अथवा जनेऊ )

उपनयन का अर्थ है, गायत्री मंत्र सीखने हेतु गुरु के (शिक्षक के) पास ले जाना । नयन शब्द का अर्थ आंख भी है । उपनयन अर्थात अंतःचक्षु । जिस विधि से अंतःचक्षु खुलने लगते हैं अथवा खुलने में सहायता होती है, उसे उपनयन कहते हैं ।

दसवां संस्कार : मेधाजनन

इस विधि में पलाश के छडी पर ‘सुश्रव’ यह मंत्र पाठ करते हुए ब्रह्मचारी को (बटु) (ब्रह्मवृक्ष की) डाली के चारों ओर सर्व जल छोडते हुए उसकी तीन बार परिक्रमा करनी पडती है ।

महानाम्नीव्रत, महाव्रत, उपनिषद्व्रत, गोदानव्रत (ग्यारहवां, बारहवां, तेरहवां एवं चौदहवां संस्कार )

ग्यारहवें संस्कार से लेकर चौदहवां संस्कार, इन चार व्रतों को चतुर्वेदव्रत कहते हैं । ये व्रत ब्रह्मचर्याश्रम में आचार्य करवाते हैं ।

पंद्रहवां संस्कार : समावर्तन संस्कार 

समावर्तन संस्कार के समय आगे दी गई बातें मंत्रपूर्वक करते हैं – वस्त्रधारण, काजलधारण, कुंडलधारण, पुष्पमालाधारण, पादत्राणधारण, छत्रधारण, दंडधारण, स्वर्णमणिधारण । अब पुत्र गृहस्थाश्रम में लौटनेवाला है, अतः उसे इस विधि द्वारा गृहस्थाश्रम में रहना सिखाया जाता है ।

पूजाविधि के संदर्भ में शंकानिरसन – भाग २

कर्पूर जलाने से उत्पन्न सूक्ष्म-वायु की उग्र गंध में शिवगणों को आकृष्ट करने की क्षमता अधिक होती है । वास्तु में कनिष्ठ अनिष्ट शक्तियों को नियंत्रित रखने का कार्य शिवगण करते हैं । वास्तु में विद्यमान शिवगणों के अस्तित्व से स्थानदेवता एवं वास्तुदेवता के आशीर्वाद प्राप्त करने में सहायता मिलती है ।

पूजाविधि के संदर्भ में शंकानिरसन – भाग १

मोगरा (बेला), जाही (एक प्रकारकी चमेली), रजनीगंधा इत्यादि पुष्पों में ऐसी लगन होती है कि देवताओं के पवित्रक अधिकाधिक उनकी ओर आकृष्ट हों । उन पुष्पों की कलियां सूर्यास्त से खिलना आरंभ होकर ब्राह्ममुहूर्त की आतुरता से प्रतीक्षा करती हैं । उनकी लगन के कारण देवताओं के पवित्रक उनकी ओर अधिक मात्रा में आकृष्ट होते हैं ।