श्राद्ध के भोजन का अध्यात्मशास्त्र

‘ब्राह्मणों को परोसा गया अन्न पितरों तक कैसे पहुंचता है ?’ ‘श्राद्ध में पितरों को अर्पित अन्न उन्हें कितने समय तक पर्याप्त होता है ?’

पितृदोष के कारण एवं उनका उपाय

हमारी हिन्दू संस्कति में मातृ-पितृ पूजन का बडा महत्त्व है । पिछली दो पीढियों का भी स्मरण रखें । पितृवर्ग जिस लोक में रहते हैं, उसे पितरों का विश्व अथवा पितृलोक कहते हैं ।

श्राद्ध करने में अडचन हो, तो उसे दूर करने का मार्ग

हिन्दू धर्म में इतने मार्ग बताए गए हैं कि ‘श्राद्धविधि अमुक कारण से नहीं कर पाए’, ऐसा कहने का अवसर किसी को नहीं मिलेगा । इससे स्पष्ट होता है कि प्रत्येक के लिए श्राद्ध करना कितना अनिवार्य है ।

दसवें दिन कौए का पिंड को स्पर्श करना क्यों महत्त्वपूर्ण माना जाता है ?

व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात प्रतिदिन दस दिनों तक पिंडदान बताया गया है; किंतु कालानुसार वह दसवें दिन ही एक साथ किया जाता है । 

श्राद्ध के विषय में प्राचीन ग्रंथों के संदर्भ

मृत पूर्वजों को भू और भुव लोकों से आगे जाने के लिए गति प्राप्त हो; इसके लिए हिन्दू धर्म में श्राद्ध करने के लिए कहा गया है । श्राद्ध न करने से व्यक्ति में कौन-से दोष उत्पन्न हो सकते हैं, इसका भी वर्णन विविध धर्मग्रंथों में मिलता है ।

श्राद्ध : अन्य पंथ और श्राद्ध

पृथ्वी पर (दक्षिण दिशा में भूमि खोदकर वहां दर्भ (कुश) फैलाकर उस पर ३ पिंडों का दान करने से नरक में स्थित पूर्वजों का उद्धार होता है । पुत्र को हर प्रकार से मृत पिता का श्राद्ध करना चाहिए ।

पिंडदान करने का अध्यात्मशास्त्र

‘पिंड लिंगदेह का  प्रतिनिधित्व करता है । जब लिंगदेह स्थूल देह से विलग होता है, वह वायुमंडल में मन के संस्कारों के अनेक आवरणसहित बाहर आता है । आसक्तिदर्शक घटकों में अन्न का सहभाग सर्वाधिक होता है ।

नारायणबलि, नागबलि एवं त्रिपिंडी श्राद्ध

ये अनुष्ठान अपने पितरों को (उच्च लोकों में जाने हेतु) गति मिले, इस उद्देश्य से किए जाते हैं । शास्त्र कहता है कि उसके लिए ‘प्रत्येक व्यक्ति अपनी वार्षिक आय का १/१० (एक दशांश) व्यय करे’ । यथाशक्ति भी व्यय किया जा सकता है ।

श्राद्ध में उपयोग की जानेवाली वस्तुओं का अध्यात्मशास्त्रीय महत्त्व

श्राद्ध में दर्भ (कुश), काला तिल, अक्षत, तुलसी, भृंगराज (भंगरैया) आदि वस्तुओं का उपयोग किया जाता है ।