सत्‍संग ९ : स्‍वभावदोष निर्मूलन प्रक्रिया का महत्त्व

अष्‍टांग साधना में स्‍वभावदोष निर्मूलन करने का अनन्‍य साधारण महत्त्व है । इस प्रक्रिया का महत्त्व विस्‍तार से देखेंगे । धर्मशास्‍त्र में भी कहा है कि मनुष्‍य को षड्रिपुओं का त्‍याग करना चाहिए । संतों ने भी कहा है कि षड्रिपु मनुष्‍य के शत्रु हैं ।

सत्संग ८ : साधना के अंग

साधना करते समय गुरुकृपा अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती है । शिष्य की वास्तविक आध्यात्मिक प्रगति गुरुकृपा से ही होती है । गुरु अपने शिष्य को अलग-अलग माध्यम से सीखाते रहते हैं । गुरुकृपा के माध्यम से व्यक्ति का ईश्वरप्राप्ति की ओर अग्रसर होने को ही गुरुकृपायोग कहा जाता है । गुरुकृपायोग के अनुसार साधना के २ अंग हैं – एक है व्यष्टि साधना और दूसरी है समष्टि साधना !

सत्संग ७ : सत्संग का महत्व

सत्संग क्या होता है ?, सत् का संग होता है । सत् का अर्थ ईश्वर अथवा ब्रह्मतत्त्व और संग का अर्थ है सान्निध्य ! हमें प्रत्यक्षरूप से ईश्वर का सान्निध्य मिलना असंभव है; इसलिए संत, जिन्हें ईश्वर का सगुण रूप कहा जाता है; उनका सान्निध्य सर्वश्रेष्ठ सत्संग होता है ।

सत्संग ६ : नामजप में संख्यात्मक एवं गुणात्मक वृद्धि करने हेतु आवश्यक प्रयास

नामजप अथवा कोई भी सत्कर्म करते समय, महत्त्वपूर्ण पहलू है ईश्वर से प्रार्थना करना ! प्रार्थना करने के कारण हममें याचकवृत्ति उत्पन्न होकर हमारा अहंकार अल्प होने में सहायता मिलती है ।

सत्संग ५ : नामजप करने की पद्धतियां

कलियुग में नामस्मरण ही सर्वश्रेष्ठ साधना मानी गई है । नामजप करने की विविध पद्धतियां होती हैं जैसे लिखित नामजप, वैखरी नामजप । नामजप की वैखरी वाणी के साथ मध्यमा, पश्यंती और परा ये वाणियां भी हैं ।

सत्संग ४ : नामजप से मिलनेवाले लाभ 

कलियुग में नामस्मरण ही सर्वश्रेष्ठ साधना मानी गई है । हममें से अनेक जिज्ञासुओं ने नामजप करना आरंभ किया होगा अथवा कुछ लोग पहले से नामजप करते होंगे । हममें से कुछ लोगों को नामजप करने से कोई अनुभव भी हुआ होगा । नामजप साधना का एक महत्त्वपूर्ण चरण है ।

सत्संग ३ : साधना में होनेवाली चूकें

सामान्यरूप से साधनामार्ग में कार्यरत व्यक्तियों से ४ प्रकार की चूकें होती हैं – अपने मन से साधना करना, सांप्रदायिक साधना में फंस जाना, गुरु बनाना और स्वयं को साधक समझना ! इन चूकों के कारण अनेक वर्ष साधना करने का प्रयास करने पर भी अपेक्षित आध्यात्मिक उन्नति नहीं होती ।

सत्संग २ : साधना के सिद्धांत एवं तत्त्व (भाग २)

साधना का एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, स्तर के अनुसार साधना ! स्तर अर्थात अधिकार ‘अधिकार शब्द को यहां व्यावहारिक दृष्टिकोण से नहीं, अपितु आध्यात्मिक अर्थ से हमें समझना है । संत तुकाराम महाराजजी ने कहा है, ‘जैसा अधिकार वैसा उपदेश’ ।

सत्‍संग १ : साधना के सिद्धांत एवं तत्त्व (भाग १)

साधना का महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है ‘जितने व्‍यक्‍ति, उतनी प्रकृतियां और उतने साधनामार्ग !’ ज्ञानयोग, कर्मयोग, ध्‍यानयोग, भक्‍तियोग जैसे साधना के अनेक मार्ग हैं । प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति की प्रकृति के अनुसार उसके मोक्षप्राप्‍ति के मार्ग भी अलग होते हैं ।

प्रवचन ३

नामजप और साधना केवल आध्‍यात्मिक उन्‍नति और मनःशांति के लिए ही नहीं की जाती, अपितु साधना का हमारे व्‍यावहारिक जीवन पर भी अच्‍छा परिणाम होता है । साधना करने से व्‍यक्‍तित्‍व आदर्श बनने में सहायता होती है ।