ईश्वर बुद्धिप्रमाणवादियों को दर्शन क्यों नहीं देते ?

‘जब शिष्य को गुरु की बात सुनने का अभ्यास हो जाता है, तभी शिष्य ईश्वर की बातें सुनता है । ऐसा होने के कारण ऐसे शिष्य को ही ईश्वर दर्शन देते हैं । इसलिए वे बुद्धिप्रमाणवादियों को दर्शन नहीं देते ।’ – (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले

हिन्दुओं, साधना करो !

‘हमें ईश्वर की सहायता क्यों नहीं मिलती ?, इसका हिन्दुओं को विचार करना चाहिए और सहायता मिलने के लिए साधना आरंभ करनी चाहिए ।’ – (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले

राष्ट्र-धर्म कार्य हेतु आध्यात्मिक स्तर पर कार्य करना भी अत्यावश्यक !

‘शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक स्तर पर राष्ट्र-धर्म हेतु कार्य करने से कुछ साध्य नहीं होता, यह विगत ७४ वर्षों में अनेक बार सिद्ध हुआ है । ‘अत: इनके साथ ही आध्यात्मिक स्तर पर भी कार्य करना अत्यावश्यक है’, यह सभी को ध्यान में रखना होगा ।’ – (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले

अध्यात्म की श्रेष्ठता !

‘विज्ञान पंचज्ञानेंद्रिय, मन तथा बुद्धि से समझाता है; इसलिए उसकी सीमाएं हैं । इसके विपरीत अध्यात्म पंचज्ञानेंद्रिय, मन तथा बुद्धि के पर का होने के कारण असीमित है !’ – परात्पर गुरु) डॉ. जयंत आठवले

सर्वज्ञ ऋषियों का श्रेष्ठत्व !

‘कहां किसी विषय पर कुछ वर्ष शोध कर संख्याशास्त्र के आधार पर (Statistics से) निष्कर्ष निकालनेवाले पश्चिमी शोधकर्ता, और कहां किसी भी प्रकार का शोध किए बिना मिलनेवाले ईश्‍वरीय ज्ञान के कारण किसी भी विषय का निष्कर्ष तत्काल बतानेवाले ऋषि !’ – परात्पर गुरु) डॉ. जयंत आठवले

अंतर्ज्ञानी भारतीय ऋषि !

‘पाश्‍चात्त्यों को शोध करने के लिए यंत्रों की आवश्यकता होती है । ऋषियों और संतों को उनकी आवश्यकता नहीं होती । उन्हें यंत्रों से अनेक गुना अधिक जानकारी प्राप्त होती है ।’ – परात्पर गुरु) डॉ. जयंत आठवले

कृतघ्न वर्तमान पिढी

‘धर्मशिक्षा और साधना के अभाव में कृतघ्न वर्तमान पिढी को माता-पिता की संपत्ति तो चाहिए; पर वह वृद्ध माता-पिता की सेवा करना नहीं चाहते ।’  -(परात्पर गुरु) डॉ. जयंत आठवले

अध्यात्म में स्त्रियां पुरुषों की तुलना में एक स्तर आगे होने का कारण

‘अधिकांश पुरुष कार्य के निमित्त रज-तमप्रधान समाज में रहते हैं । इसका उनपर परिणाम होने से वे भी रज-तमयुक्त होते हैं । इसके विपरीत, अधिकांश स्त्रियां घर में रहती हैं । उनका समाज के रज-तम से संपर्क नहीं होता । इसलिए वे साधना में शीघ्र प्रगति करती हैं ।’ – (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले (१४.११.२०२१)

सिखानेवाले और निरंतर सीखने की स्थिति में रहनेवाले सनातन के संत !

‘अधिकांश संत उन्हें ‘संत’ की उपाधि प्राप्त होने के उपरांत सिखाने की स्थिति में रहते हैं । इसलिए उनसे ‘अगले स्तर की साधना सीखना, साधना के विविध पहलू और उनकी सूक्ष्मता पूछकर आत्मसात करना’, ऐसी कृतियां नहीं होतीं । इसके विपरीत, सनातन के संतों को ‘अध्यात्म अनंत का शास्त्र है’, यह ज्ञात होने से वे … Read more

मनोलय हुए संतों की कृति का मानसिक स्तर पर अर्थ न निकालें !

‘अनेक बार कुछ संतों का आचरण देखकर कुछ लोगों को लगता है, ‘क्या वे मनोविकार से पीडित हैं ?’, ऐसे समय में यह ध्यान रखना चाहिए कि संतों का मनोलय हो चुका होता है । इसलिए उन्हें कभी भी मनोविकार नहीं होते । उनका आचरण उस परिस्थिति के लिए आवश्यक अथवा उनकी प्रकृतिनुसार होता है … Read more