परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के ओजस्वी विचार

‘हमारी पीढी ने वर्ष १९७० तक सात्त्विकता का अनुभव किया; अगली पीढ़ियों ने वर्ष २०१८ तक उसका अनुभव अल्प मात्रा में किया परंतु वर्ष २०२३ तक अनुभव नहीं करेंगे । उसके पश्चात की पीढ़ियां हिन्दू राष्ट्र में भारत में पुनः सात्त्विकता का अनुभव करेंगी !’ -(परात्पर गुरु) डॉ. जयंत आठवले

पाश्चात्य शिक्षा की सीमा ।

‘पाश्चात्य शिक्षा किसी भी समस्या के मूल कारण तक नहीं जाती, उदा. प्रारब्ध, बुरी शक्ति, कालमहात्म्य । उनके उपाय उसी प्रकार हैं जैसे किसी क्षयरोगी को क्षयरोग के कीटाणु मारने की औषधि न देकर केवल खांसी की औषधि देना । -(परात्पर गुरु) डॉ. जयंत आठवले

परमात्मा से एकरूपता ।

‘एक बूंद पानी समुद्र में डालने पर, वह समुद्र से एकरूप हो जाता है । वैसे ही राष्ट्रभक्त राष्ट्र से एकरूप हो जाता है और साधक परमात्मा से एकरूप होता है ।’ -(परात्पर गुरु) डॉ. जयंत आठवले

ईश्वर के राज्य का कल्पनातीतपन ।

”अनेक गुन्हा करके आत्महत्या करनेवाले को सरकार कैसे सजा देगी ? केवल ईश्‍वर दे सकते हैं । इससे ध्यान में आता है कि ईश्‍वर का राज्य कितना कल्पनातीत है । इसलिए ईश्वरीय राज्य की स्थापना हेतु प्रयत्नरत रहें । -(परात्पर गुरु) डॉ. जयंत आठवले

हिंदुओं की और भारत की दयनीय स्थिति होने का कारण 

‘मंदिरों में देवता के कर्मचारी दर्शनार्थियों को दर्शन देने के अतिरिक्त और क्या करते हैं ? उन्होंने दर्शनार्थियों को धर्मशिक्षा दी होती, उन्हें साधना सिखाई होती, तो हिंदुओं की और भारत की ऐसी दयनीय स्थिति नहीं हुई होती ।’ -(परात्पर गुरु) डॉ. जयंत आठवले

ईश्वर की प्राप्ति के लिए जीवन समर्पण !

‘नौकरी में थोडे से वेतन के लिए ७ – ८ घंटे नौकरी करनी पड़ती है, तो सर्वज्ञ, सर्वव्यापी और सर्व सामर्थ्यवान ईश्‍वर की प्राप्ति के लिए क्या जीवन नहीं देना चाहिए ?’ -(परात्पर गुरु) डॉ. जयंत आठवले

मंदिरों में साधना सिखाने की आवश्यकता

‘मस्जिद और चर्च में साधना सिखाई जाती है तथा करवाकर ली जाती है । हिंदुओं के एक भी मंदिर में ऐसा न करने के कारण आज हिंदुओं की स्थिति दयनीय हो गई है ।’ -(परात्पर गुरु) डॉ. जयंत आठवले

तन-मन-धन के त्याग का महत्त्व

‘हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए किसी को कुछ करने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि कालमहिमा के अनुसार वह होनेवाला ही है; परंतु इस कार्य में जो तन-मन-धन का त्याग कर सम्मिलित होंगे, उनकी साधना होगी और वे जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होंगे । -(परात्पर गुरु) डॉ. जयंत आठवले

सत्ययुग में सभी आनंदी थे।

‘सत्ययुग में नियतकालिक, दूरचित्रवाहिनियां, जालस्थल आदि की आवश्यकता ही नहीं थी; क्योंकि बुरे समाचार नहीं होते थे और सभी ईश्वर के आंतरिक सान्निध्य में होने के कारण आनंदी थे।’ -(परात्पर गुरु) डॉ. जयंत आठवले

‘भक्तीयोग का महत्त्व’

‘कर्मयोग, ज्ञानयोग, हठयोग आदि योगों में ईश्वर का विचार न होने के कारण ईश्वर से कुछ मांग नहीं पाते; परंतु भक्तियोग का साधक ईश्वर से मांग सकता है । ऐसा है तब भी अन्य योग के साधकों को ईश्वर ने सुविधा उपलब्ध करवाई है । यदि गुरु हों, तो वे गुरू से सब कुछ मांग … Read more