अनुक्रमणिका
- १. कलियुग की विशेषता और उसका मानवी जीवन पर परिणाम
- २. आध्यात्मिक कष्टों के प्रकार
- ३. शारीरिक व्याधि मनुष्य की मृत्यु के साथ समाप्त हो जाना; परंतु आध्यात्मिक व्याधि अनेक जन्मों तक वैसी ही शुरू रहने से उसे आध्यात्मिक उपायों से समय पर ही दूर करने की आवश्यकता
- ४. कलियुग में जीवों के साधना करने का महत्त्व
- ५. कलियुग में अनिष्ट शक्तियों का संकट ध्यान में रखकर ही अपना जीवन व्यतीत करना आवश्यक
वातावरण में अच्छी और अनिष्ट शक्तियां कार्यरत होती हैं । अच्छी शक्ति अच्छे कार्य के लिए मनुष्य की सहायता करती हैं, जबकि अनिष्ट शक्तियां उसे कष्ट देती हैं । पूर्वकाल में ऋषि-मुनियों के यज्ञों में राक्षसों द्वारा विघ्न डालने का उल्लेख वेद-पुराणों की अनेक कथाओं में पाया जाता है । ‘अथर्ववेद में अनेक स्थानों पर बुरी शक्तियां, उदा. असुर, राक्षस, पिशाचों को प्रतिबंधित करने के मंत्र दिए हैं ।’
संदर्भ : मराठी विश्वकोश खंड १, महाराष्ट्र राज्य साहित्य संस्कृति मंडल, सचिवालय, मुंबई – ४०००३२, आवृत्ति १ (१९७६), पृष्ठ १९४
१. कलियुग की विशेषता और उसका मानवी जीवन पर परिणाम
अ. ‘कलियुग तमोगुणी संस्कारों से भरा है ।
आ. साधना न करना, आध्यात्मिक उपायों बिना जीवन व्यतीत करना, अर्थात इस जन्म में अपनी ही अत्यधिक हानि कर लेना और जन्म-मृत्यु के फेर में अटकना
इ. मनुष्य में षड्रिपु अल्प-अधिक मात्रा में होते हैं । कलियुग में मनुष्य के षड्रिपु अधिक मात्रा में कार्यरत रहने से उन्हें दूसरों के प्रति ईर्ष्या होती है । इसके साथ ही अनेक बातों में अपेक्षा और आसक्ति (चाह) होती है । ये सभी विचार वासनात्मक होते हैं अर्थात इच्छा उत्पन्न करते हैं ।
ई. कलियुग में मनुष्य का मन ७० प्रतिशत विकल्प से भरा हुआ है । उसके मन में आनेवाला और व्यक्त होनेवाला विचार तमोगुणी होता है ।
उ. तामसिक विचारों के तमोगुणी बादल जीवपर अपना रज-तमात्मक प्रभाव दर्शाते हैं । क्रोध, द्वेष, मत्सर जैसे दोषों का परिणाम दूसरों पर होता है और उसके विषय में हमें वासनाजन्यरूपी आसक्तिदर्शक रज-तमात्मक विचार आते हैं । उन विचारों की तीव्रता के अनुरूप उस अमुक जीव को दृष्टि लगने की मात्रा कम-अधिक होती है ।
२. आध्यात्मिक कष्टों के प्रकार
२ अ. दृष्टि (नजर) लगना
बच्चे को काजल का टीका लगाने का संस्कार आज भी है । कुछ पुरानी और अनुभवी महिलाएं आए हुए अतिथियों पर से नीबू-नमक का उतारा आज भी करती हैं । कोई भी प्रथा-परंपरा जब अनेक वर्षों से चली आ रही हो, तो हमें समझ लेना चाहिए कि उसके पीछे निश्चितरूप से कुछ न कुछ शास्त्र अवश्य होता है । वर्तमान के स्पर्धात्मक एवं भोगवादी युग में बहुतांश व्यक्ति ईर्ष्या, द्वेषभाव, लोकेषणा, भिन्नलिंग के व्यक्तियों की ओर देखने की बुरी दृष्टि जैसी विकृतियों से ग्रस्त हैं । इन विकृतिजन्य रज-तमात्मक स्पंदनों का कष्टदायक परिणाम सूक्ष्म से अनजाने में ही दूसरे व्यक्तियों पर होता है । इसे ही कहते हैं उस व्यक्ति को ‘दृष्टि लगना’ यानी नजर लगना ! इसके साथ ही परिवार में झगडे, व्याधि, आर्थिक तंगी, बुरे स्वप्न आना, निराशा, सिगरेट अथवा मद्य का व्यसन जैसी समस्याएं अब नित्य की हो गई हैं । जीवन की ८० प्रतिशत समस्याओं के कारण देखने में भले ही स्थूलरूप के हों, तब भी वास्तविक मूूल कारण सूक्ष्म का अर्थात अनिष्ट शक्तियों का ही होता है । अनिष्ट शक्तियों का कष्ट भी दृष्टि अर्थात नजर लगने का ही एक भाग है ।
संक्षेप में, जीवन को समस्याओं विरहित और आनंदमय बनाना चाहते हों, तो ‘नजर उतारना’ यह सबसे सरल घरेलू आध्यात्मिक उपाय करना श्रेयस्कर है । वर्तमान के विज्ञानयुग में ‘दृष्टि (नजर) लगना और दृष्टि उतारना’, इन शब्दों का उच्चार करने पर भी बुद्धिवादी लोग उसे ‘पुरातन पद्धति’, कहते हुए नाक-भौं सिकोडेंगे । विज्ञानयुग में किसी भी बात को शास्त्रोेक्त पद्धति से रखने पर लोग उस पर तुरंत विश्वास कर लेते हैं ।
अब दृष्टि उतारने का महत्त्व ध्यान में आने पर अधिकाधिक लोग अपनी दृष्टि उतारकर अपने सर्व ओर निर्माण हुए कष्टदायक स्पंदनों का आवरण दूर करें और साधना द्वारा ब्रम्हांड की ईश्वरीय तरंगों का लाभ लें ।
२ अ १. ‘दृष्टि लगना’ से क्या तात्पर्य है ?
१. ‘किसी जीव की रज-तमात्मक इच्छा का दूसरे जीव पर होनेवाला दुष्परिणाम का अर्थ है दृष्टि लगना ।’ – श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळ के माध्यम से, १०.८.२००४, सायं. ७.२४
इसका एक उदाहरण है बच्चे को दृष्टि लगना । हंसते हुए सुंदर बच्चे को देखनेवाले कुछ लोगों के मन में अनजाने में ही एक आसक्तियुक्त विचार आता है । आसक्ति युक्त विचार रज-तमात्मक होते हैं । बच्चे की सूक्ष्म-देह अति संवेदनशील होने से उस पर इन रज-तमात्मक स्पंदनों का अनिष्ट परिणाम होता है, अर्थात बच्चे को दृष्टि लग जाती है ।
२. कई बार कोई व्यक्ति, अथवा वस्तुओं के विषय में किसी व्यक्ति अथवा किसी अनिष्ट शक्ति के मन में बुरे विचार आते हैं अथवा वे किसी का शुभ देख नहीं सकते । इससे निर्माण होनेवाले अनिष्ट स्पंदनों का उस व्यक्ति अथवा वस्तु पर परिणाम होते है । इसे ही कहते हैं ‘दृष्टि लगना ।
‘किसी जीव के मन में दूसरे जीव के प्रति तीव्र मत्सर अथवा द्वेषयुक्त विचार ३० प्रतिशत से अधिक होंगे, तो उस जीव की दूसरे जीव को तीव्र दृष्टि लग सकती है । इस दृष्टि की मात्रा के अनुरूप उस दूसरे जीव को शारीरिक स्तर की तुलना में मानसिक स्तर पर कष्ट होने की मात्रा अधिक होती है । इसे कहते हैं ‘सूक्ष्म स्तर पर तीव्र दृष्टि लगना ।’ – श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळ के माध्यम से, २३.५.२००९
२ आ. अतृप्त पूर्वजों के कष्ट होने का कारण और कष्ट का स्वरूप
हिन्दू धर्म में बताए अनुसार ईश्वर के मूलभूत सिद्धांतों में से एक है ‘देवऋण, ऋषिऋण, पितृऋण और समाजऋण, इन चार ऋणों को चुकाना पडता है । इनमें से पितृऋण चुकाने के लिए ‘श्राद्ध’ आवश्यक होता है ।
माता-पिता के साथ ही निकटवर्तीय सगे-संबंधियों की मृत्यु के उपरांत का प्रवास सुखमय और क्लेशरहित हो, उन्हें सद्गति मिले, इसके लिए किया जानेवाला संस्कार ‘श्राद्ध’ । मंत्रोच्चार में पितरों को गति देने की सूक्ष्म शक्ति समाई होती है । श्राद्ध में पितरों का हविर्भाग दिए जाने से वे संतुष्ट हो जाते हैं । इसके विपरीत श्राद्ध न करने से पितरों की इच्छा अतृप्त रह जाने से, इसके साथ ही ऐसे वासनायुक्त पितर अनिष्ट शक्तियों के नियंत्रण में जाकर उनके दास (गुलाम) बन जाने से अनिष्ट शक्तियों द्वारा पितरों का उपयोग कर, कुटुंबियों को कष्ट देने की संभावना अधिक होती है । श्राद्ध के कारण पितरों की इन कष्टों से मुक्तता होकर हमारी जीवन भी सुसह्य हो जाता है ।
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अतृप्त पूर्वजों के कष्ट होने के कारण और कष्टों का स्वरूप
३. शारीरिक व्याधि मनुष्य की मृत्यु के साथ समाप्त हो जाना; परंतु आध्यात्मिक व्याधि अनेक जन्मों तक वैसी ही शुरू रहने से उसे आध्यात्मिक उपायों से समय पर ही दूर करने की आवश्यकता
शारीरिक व्याधि मनुष्य की मृत्यु के साथ समाप्त हो जाती हैं; परंतु आध्यात्मिक व्याधि अनेक जन्मों तक वैसे ही शुरू रहती हैं । इन व्याधियों को तीव्र साधना से, साथ ही समय-समय पर दृष्टि उतारने और अन्य आध्यात्मिक उपाय करना, इन माध्यमों से दूर करनी होती है । तब ही कलियुग के मनुष्य जीवन में सुख, शांति और समाधान पा सकते हैं ।
४. कलियुग में जीवों के साधना करने का महत्त्व
कलियुग में संपूर्ण वायुमंडल ही तमोगुणी विचारों से ग्रस्त होने से जीव को किसी न किसी की दृष्टि लगती ही है । उसके लिए जीव को साधना कर अपने आसपास के वायुमंडल को सतत शुद्ध रखना और उसमें से ही श्वास लेकर ईश्वर की चैतन्य तरंगों का अपेक्षित लाभ लेना उत्तम होगा ।
५. कलियुग में अनिष्ट शक्तियों का संकट ध्यान में रखकर ही अपना जीवन व्यतीत करना आवश्यक
बुद्धिजीवी जीवों को यह सब स्वीकार नहीं होगा, तब भी यह एक शाश्वत सत्य है । उसे हमें स्वीकारना ही होगा । कलियुग में भारी संख्या में अनिष्ट शक्तियों के होने से कदम-कदम पर उनसे धोखा है । उसे पहचानकर ही हमें अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए ।